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जाता है तब एक आत्मा खण्ड-खण्डरूप अनुभव में आता है, केवल अंश ही सामने आता है, अंशीरूप से उसका नाश हो जाता है। अतएव ज्ञानी पुरुष नयचक्र से परे रहनेवाले एक अखण्ड आत्मा का ही चिन्तन करता है । यद्यपि प्रारम्भ में, ज्ञान में, नय, प्रमाण और निक्षेप के विकल्प आते हैं, परन्तु आगे चलकर वे विकल्प स्वयं शान्त हो जाते हैं ।। २६९ ।।
समयसार
ज्ञानी जीव ऐसा अनुभव करता है कि मैं न तो द्रव्य के द्वारा आत्मा को खण्डित करता हूँ, न क्षेत्र के द्वारा खण्डित करता हूँ, न काल के द्वारा खण्डित करता हूँ और न भाव के द्वारा खण्डित करता हूँ। मैं तो अत्यन्त विशुद्ध एक ज्ञानमात्र हूँ । यद्यपि वस्तुस्वरूप के विवेचन में द्रव्यं, क्षेत्र, काल, भाव का विकल्प आता है, परन्तु अभेदनय से विचार करने पर इन चारों में प्रदेशभेद नहीं है। अतः उक्त विकल्प स्वयं शान्त हो जाते हैं और वस्तु एकरूप अनुभव में आने लगती है ।
शालिनीछन्द
योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव ।
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवल्गन्
ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः ।। २७० ।।
अर्थ- जो यह मैं ज्ञानमात्र भाव हूँ उसे ज्ञेय का ज्ञानमात्र नहीं जानना, किन्तु ज्ञेयों के आकाररूप ज्ञान की कल्लोलों से चञ्चल, ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता ऐसे तीन भेदों से युक्त वस्तुमात्र जानना ।
भावार्थ - ऊपर आत्मा को ज्ञानमात्र भाव कहा है, सो उसका यह अभिप्राय नहीं है कि आत्मा केवल ज्ञेयों के ज्ञानमात्र ही है, किन्तु ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता इस प्रकार तीन भेदों को लिये हुए वस्तुमात्र है अर्थात् आत्मा ज्ञान भी है, ज्ञेय भी है और ज्ञाता भी है। उस आत्मा में ज्ञेयों के आकार प्रतिफलित होते हैं, वे आकार ही ज्ञान के कल्लोल कहलाते हैं। इन ज्ञान की कल्लोलों के द्वारा वह आत्मा चञ्चल रहता है अर्थात् उसमें ज्ञेयाकाररूप ज्ञान के विकल्प सदा उठते रहते हैं । । २७०।।
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अब आत्मा की अनेकरूपता ज्ञानियों के मन में भ्रम उत्पन्न नहीं करती, यह दिखलाने के लिये कलशा कहते हैं
पृथ्वीछन्द
क्वचिल्लसति मेचकं क्वचिन्मेचकामेचकं क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम ।
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