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________________ स्याद्वादाधिकार ४३१ आगे आचार्य स्वभाव के प्रकट होने की आकांक्षा दिखलाते हुए कलशा कहते हैं वसन्ततिलका स्याद्वाददीपितलसन्महसि प्रकाशे शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति। किं बन्धमोक्षपथपातिभिरन्यभावै नित्योदयः परमयं स्फुरतु स्वभावः।।२६८।। अर्थ- जिसका लहलहाट करता तेज स्याद्वाद से देदीप्यमान है, तथा जिसमें शुद्धस्वभाव की महिमा विद्यमान है ऐसा ज्ञानरूप प्रकाश जब मुझमें उदय को प्राप्त हो चुका है तब मुझे बन्ध और मोक्ष के मार्ग में गिरनेवाले अन्यभावों से क्या प्रयोजन है? मैं तो चाहता हूँ कि मेरा नित्य ही उदयरूप रहनेवाला यह स्वभाव ही अतिशयरूप से स्फुरायमान हो। भावार्थ- शद्धस्वभाव की महिमा से युक्त यथार्थ ज्ञान के प्रकट होने पर बन्ध और मोक्ष के विकल्प उठानेवाले अन्य भावों से ज्ञानी जीव को कोई प्रयोजन नहीं रह जाता, इसलिये वह सदा यही चाहता है कि मेरा जो ज्ञानमात्र स्वभाव है वही सदा उदित रहे।।२६८।। आगे ज्ञानी एक-अखण्ड आत्मा की भावना करता है, यह दिखाने के लिये कलशा कहते हैं चित्रात्मशक्तिसमुदायमयोऽयमात्मा सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्ड्यमानः। तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेक मेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि।।२६९।। अर्थ- अनेक प्रकार की आत्मशक्तियों का समुदाय रूप यह आत्मा नय की दृष्टि से खण्ड-खण्ड होता हुआ शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, इसलिये मैं अपने आत्मा का ऐसा अनुभव करता हूँ कि मैं तो वह चैतन्यरूप तेज हूँ जो अखण्ड है अर्थात् प्रदेशभेद न होने से जो सदा अखण्ड रहता है, फिर भी शक्तियों की विभिन्नता के कारण जिसके खण्ड दूर नहीं किये जा सकते, जो एक है, अत्यन्त शान्त है तथा अचल है अर्थात् अपने स्वभाव से कभी चिगता नहीं है। भावार्थ- आत्मा नाना प्रकार की जिन आत्मशक्तियों का समुदाय है वे शक्तियाँ नयों पर अवलम्बित हैं। इसलिये जब नयदृष्टि से आत्मा का चिन्तन किया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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