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________________ ४३० समयसार अर्थ- जो स्याद्वाद की कुशलता तथा अत्यन्त निश्चल संयम के द्वारा निरन्तर इसी ओर उपयोग लगाता हुआ अपने ज्ञानरूप आत्मा की भावना करता है—आत्मा का चिन्तन करता है वही एक ज्ञाननय और क्रियानय की परस्पर तीव्र मित्रता का पात्र हुआ इस ज्ञानमयी भूमि को प्राप्त होता है। ___भावार्थ- जो पुरुष, मात्र ज्ञाननय को स्वीकार कर क्रियानय को छोड़ देता है अर्थात् चरणानुयोग की पद्धति से चारित्र का पालन नहीं करता वह स्वच्छन्द हुआ इस ज्ञानमयी भूमि को नहीं पाता और जो क्रियानय को ही स्वीकार कर मात्र बाह्य आचरण में लीन रहता है तथा आस्रव और बन्ध आदि के योग्य भावों के परिज्ञान से रहित होता है वह भी इस भूमि को नहीं प्राप्त करता। किन्तु जो इन दोनों नयों को अंगीकार कर ज्ञानपूर्वक सम्यक्चारित्र का पालन करता है वही इस भूमि को प्राप्त होता है।।२६६।। अब ज्ञानमयी भूमि को प्राप्त करनेवाले को ही आत्मा का उदय होता है, यह कहने के लिये कलशा कहते हैं वसन्ततिलकाछन्द चित्पिण्डचण्डिमविलासिविकासहास: शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः। आनन्दसुस्थितसदास्खलितैकरूप स्तस्यैव चायमृदयत्यचलार्चिरात्मा।।२६७।। अर्थ- जिसका विकासरूपी हास चैतन्यपिण्ड के तेज से विलसित हैशोभायमान है, जो शुद्धप्रकारश के समूह से अच्छी तरह सुशोभित है, जो अनन्त सख में अच्छी तरह स्थित और निरन्तर न चिरानेवाले एक-अद्वितीयरूप से युक्त है तथा जिसकी ज्ञानरूपी ज्योति अचल है ऐसा यह आत्मा उसी ज्ञानमात्र भूमिका को प्राप्त करनेवाले महानुभाव के उदय को प्राप्त होता है। भावार्थ- यहाँ चित्पिण्ड आदि विशेषण से अनन्तदर्शन का प्रकट होना बतलाया है, शुद्धप्रकाश आदि विशेषण से अनन्तज्ञान का प्रकट होना बतलाया है, आनन्दसुस्थित आदि विशेषण से प्रकट होना सूचित किया है और अचलार्चिः इस विशेषण से अनन्तवीर्य का सद्भाव जताया है। इस तरह अनन्तचतुष्टय से तन्मय आत्मा उसी महानुभाव के उदयरूप होता है जो ज्ञानमात्र भूमि को प्राप्त हो चुकता है।।२६७।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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