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स्याद्वादाधिकार
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ग्रहण से उन मुमुक्षुजनों को, जिन्हें अनादि संसार से लेकर अभी तक संसारसागर से संतरण करानेवाली ज्ञानमात्र भूमिका का लाभ नहीं हुआ, भी उस भूमिका का लाभ हो जाता है। तदनन्तर उस भूमिका में निरंतर लीन रहनेवाले वे सत्पुरुष, स्वयं ही क्रम तथा अक्रम से प्रवृत्त होनेवाले अनेक धर्मों की मूर्तिरूप होते हुए साधकभाव से उत्पन्न होनेवाले परमप्रकर्ष की उच्चतम अवस्थास्वरूप सिद्धभाव के पात्र होते हैं। परन्तु जो पुरुष, अन्तर्नीत अर्थात् भीतर समाये हैं अनेक धर्म जिसमें ऐसी ज्ञानमात्र एकभावरूप इस भूमि को नहीं प्राप्त करते हैं वे निरन्तर अज्ञानी रहते हुए, ज्ञानमात्र भाव के स्वरूप से नहीं होने तथा पररूप होने को देखते-जानते तथा अनुचरण करते हए मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्र के धारक होते हैं तथा उपायोपेयभाव से सर्वथा भ्रष्ट होकर निरन्तर भटकते ही रहते हैं। आगे यही भाव कलशा में कहते हैं
__वसन्ततिलका ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पां
भूमिं श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः। ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिद्धाः
मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति।।२६५।। __ अर्थ- जिसका किसी तरह मोह (मिथ्यात्व) नष्ट हो गया है ऐसे जो सत्पुरुष, ज्ञानमात्र निजभावरूप निश्चल भूमिका आश्रय करते हैं वे साधकपन को प्राप्तकर सिद्ध होते हैं। पर जो मूढ मिथ्यादृष्टि हैं वे इस भूमि को न पाकर परिभ्रमण करते हैं।
भावार्थ- स्वभाव से अथवा परके उपदेश आदि से जिनका मिथ्यात्व दूर हो जाता है ऐसे जो जीव इस ज्ञानमात्र भूमि को प्राप्त करते हैं वे साधक अवस्था को प्राप्त होकर अन्त में सिद्ध होते हैं और इनके विपरीत मिथ्यादृष्टि जीव इस भूमि को न पाकर चतुर्गति संसार में जन्म-मरण करते हुए निरन्तर घूमते रहते हैं।।२६५।। आगे इस भूमि की प्राप्ति कैसे होती है, यह कहते हैं
वसन्ततिलका स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां
यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः। ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्री
पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः।।२६६।।
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