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________________ ४२८ समयसार प्राप्त करते हैं तथा जिनेन्द्र देव के द्वारा प्रतिपादित नीति का- नयमार्ग का जो कभी उल्लङ्घन नहीं करते ऐसे वे सत्पुरुष ज्ञानी होते हैं अर्थात् अनादि कर्मबन्धन को काटकर मुक्त होते हैं।।२६४।। उपायोपेयभाव अब इस ज्ञानमात्रभाव के उपायोपेयभाव का चिन्तन करते हैं पाने योग्य वस्तु जिससे प्राप्त की जा सके वह उपाय है और उस उपाय के द्वारा जो वस्तु प्राप्त की जावे वह उपेय है। आत्मारूप वस्तु यद्यपि ज्ञानमात्र है तो भी उसमें उपायोपेयभाव विद्यमान है; क्योंकि उस आत्मवस्तु के एक होने पर भी उसमें साधक और सिद्ध के भेद से दोनों प्रकार का परिणाम देखा जाता है अर्थात् आत्मा ही साधक है और आत्म ही सिद्ध है। उन दोनों परिणामों में जो साधकरूप है वह उपाय कहलाता है और जो सिद्धरूप है वह उपेय कहा जाता है। इसलिये अनादिकाल से साथ लगे हुए मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अचारित्र के कारण स्वरूप से च्युत होने से जो चतुर्गति संसार में परिभ्रमण कर रहा है, ऐसा यह आत्मा जब अत्यन्त निश्चल भाव से ग्रहण किये हुए व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र के पाकप्रकर्ष की परम्परा के द्वारा क्रम से स्वरूप को प्राप्त होता है तब अन्तर्मग्न निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की विशेषता से उसका साधक रूप परिणमन होता है। तथा परमप्रकर्ष की उत्कृष्ट दशा को प्राप्त रत्नत्रय के अतिशय से प्रवृत्त होने वाले जो समस्त कर्मों का क्षय उसमें प्रज्वलित तथा कभी नष्ट नहीं होनेवाला जो स्वभाव भाव उसकी अपेक्षा सिद्धरूप परिणमन होता है। इस तरह साधक और सिद्धरूप परिणमन करनेवाले आत्मा का जो ज्ञानमात्र भाव है वह एक ही उपायोपेयभाव को सिद्ध करता है अर्थात् आत्मा का ज्ञानमात्रभाव ही उपाय है और वही उपेय है। ____तात्पर्य ऐसा है-यह आत्म अनादिकाल से मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र के कारण संसार में भ्रमण करता है। जब तक व्यवहाररत्नत्रय को निश्चल रूप से अंगीकृत कर अनुक्रम से अपने स्वरूप के अनुभव की वृद्धि करता हुआ निश्चयरत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त होता है तबतक तो साधक रूप भाव है और निश्चयरत्नत्रय की पूर्णता से समस्त कर्मों को क्षय होकर जो मोक्ष प्राप्त होता है वह सिद्धरूप भाव है। इन दोनो भावरूप परिणमन ज्ञान का ही परिणमन है, इसलिये वही उपाय है और वही उपेय है। इस प्रकार साधक और सिद्ध दोनों प्रकार के परिणमनों में ज्ञानमात्र की अनन्यता-अभिनता से निरन्तर अस्खलित जो आत्मारूप एक वस्तु उसके निश्चल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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