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स्याद्वादाधिकार
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तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः
__परस्परसुसंहतप्रकटशक्तिचक्रं स्फुरत्।।२७१।। अर्थ- ज्ञानी जीव ऐसा अनुभव करता है कि मेरा जो सहज आत्मतत्त्व है, वह यद्यपि कहीं तो मेचक-अशुद्ध, कहीं मेचकामेचक-शुद्धाशुद्ध और कहीं अमेचक-शुद्ध ही सुशोभित होता है। तथापि वह निर्मल बुद्धि के धारक पुरुषों के मन को भ्रान्तियुक्त नहीं करता, क्योंकि वह परस्पर अच्छी तरह मिलकर प्रकट हुई शक्तियों के समूह से युक्त तथा स्फुरायमान–अनुभवगोचर है।
भावार्थ- जिस प्रकार नाटक में एक ही पात्र नानारूपों को धारण करने के कारण नानारूप दिखाई देता है, परन्तु परमार्थ से वह एक ही होता है, इसलिये ज्ञानी पुरुषों को भ्रम नहीं होता वे स्पष्ट समझ लेते हैं कि नाना वेषों को धारण करने वाला एक ही पात्र है। उसी प्रकार यह आत्मा भी नानारूप धारण करने के कारण नानारूप दिखाई देता है। जैसे कर्मोदय की तीव्रता में यह आत्मा रागादिक विकारों से अशुद्ध दिखाई देता है, फिर कुछ कर्मोदय दूर होने पर रागादिक विकारों में न्यूनता होने पर शुद्धाशुद्ध अनुभव में आता है और तदनन्तर कर्मों का सर्वथा क्षय हो जानेपर रागादिक विकारों से सर्वथा रहित होता हुआ शुद्ध दिखाई देता है। इस तरह आत्मा यद्यपि नानारूपों में अनुभवगोचर होता है परन्तु निर्मल भेदज्ञान को धारण करनेवाले पुरुषों को इससे आत्मा में अनेक रूपता का भ्रम नहीं होता। वे समझते हैं कि एक ही आत्मा की ये नाना अवस्थाएँ हैं। भ्रम उत्पन्न न होने का कारण यह है कि आत्मा परस्पर मिली हुई अनेक शक्तियों के समूह से युक्त एक ही अनुभव में आती है। उन शक्तियों के कारण आत्मा में अशुद्धता, शुद्धताशुद्धता और शुद्धता रूप परिणमन करने की योग्यता विद्यमान है।।२७१।।
___ आगे आत्मा के आश्चर्यकारी सहज वैभव को दिखलाने के लिए कलशा कहते हैं
पृथ्वीछन्द इतो गतमनेकतां दधदितः सदाप्येकता
मित: क्षणविभङ्गुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात् । इतः परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेशैर्निजै
__ रहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम्।।२७२ ।। अर्थ- अहो! आत्मा का वह सहज वैभव बड़ा आश्चर्यकारी है क्योंकि इस ओर अनेकता को प्राप्त है तो इस ओर सदा एकता को धारण कर रहा है, इस
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