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स्याद्वादाधिकार
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करता है जो अन्य द्रव्यों के समान होते हैं, जैसे अस्तित्व, वस्तुत्व आदि। कुछ ऐसे भावों को धारण करता है जो अन्य द्रव्यों के समान नहीं होते हैं, जैसे ज्ञान-दर्शनादि, तथा कुछ ऐसे भावों को धारण करता है जो
समान-असमान दोनों प्रकार के होते हैं, जैसे अमूर्तत्व। (२७) परस्परभिन्न लक्षण वाले अनन्त स्वभावों से मिला हुआ एकभाव जिसका
लक्षण है ऐसी सत्ताईसवीं अनन्तधर्मत्वशक्ति है। इस शक्ति के कारण आत्मा
अनन्त धर्मों को धारण करता है। (२८) तत्स्वरूप और अतत्स्वरूप से तन्मयपन जिसका लक्षण है ऐसी अट्ठाईसवीं
विरुद्धधर्मत्वशक्ति है। इस शक्ति से आत्मा विवक्षावश नित्यत्वरूप तथा
अनित्यत्वरूप आदि विरुद्ध धर्मों को धारण करता है। (२९) तत्त्वस्वरूप होना जिसका लक्षण है ऐसी उनतीसवीं तत्त्वशक्ति है। इस शक्ति
से आत्मा सदा आत्मरूप ही रहता है। (३०) अतत्स्वरूप न होना जिसका लक्षण है ऐसी तीसवीं अतत्त्वशक्ति है। इस
शक्ति से आत्मा अनात्मरूप नहीं होता। (३१) अनेक पर्यायों में व्याप्त होकर रहनेवाला एक द्रव्यरूप होना जिसका लक्षण __ है ऐसी इकतीसवीं एकत्वशक्ति है। इस शक्ति से आत्मा अपनी अनेक पर्यायों
में व्याप्त होकर भी एक द्रव्यरूप रहता है। (३२) एक द्रव्य में व्याप्त होकर रहनेवाली अनेक पर्यायों से तन्मय होकर रहना
जिसका लक्षण है ऐसी बत्तीसवीं अनेकत्वशक्ति है। इस शक्ति के कारण आत्मा, द्रव्य की अपेक्षा एक होकर भी अनेक पर्यायों में व्याप्त रहने से
अनेकरूप होता है। (३३) भूतावस्थापन जिसका स्वरूप है ऐसी तेतीसवीं भावशक्ति है। इस शक्ति
से आत्मा की कोई न कोई अवस्था विद्यमान रहती ही है। (३४) शून्यावस्थापन जिसका स्वरूप है ऐसी चौतीसवीं अभावशक्ति है। इस शक्ति
से आत्मा में वर्तमान पर्याय के सिवाय अन्य अतीत और अनागत पर्यायों
का अभाव रहता है। (३५) वर्तमान पर्याय का व्यय जिसका स्वरूप है ऐसी पैंतीसवीं भावाभावशक्ति
है। इस शक्ति से आत्मा में वर्तमान पर्याय का नाश होता है। (३६) जो पर्याय वर्तमान में नहीं है उसका उदय होनेरूप छत्तीसवीं अभावाभाव
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