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________________ ४२४ समयसार (२०) कर्मबन्ध के अभाव से प्रकट, सहज तथा स्पर्शादि शून्य आत्मप्रदेश स्वरूप बीसवीं अमूर्तत्वशक्ति है। इस शक्ति की महिमा से आत्मा के प्रदेश स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण से शून्य रहते है। आत्मप्रदेशों की अमूर्तावस्था कर्मबन्ध के नष्ट हो जाने पर व्यक्त होती है। (२१) सकल कर्मों से किये गये, ज्ञातापन मात्र से अतिरिक्त-अन्य परिणामों के कर्तृत्व से विरत होना जिसका लक्षण है ऐसी इक्कीसवीं अकर्तृत्वशक्ति है। इस शक्ति के कारण ज्ञातारूप परिणाम के सिवाय आत्मा में जो कर्मनिमित्तक रागादिक परिणाम होते हैं उनका आत्मा कर्ता नहीं होता है। (२२) सकल कर्मों से किये गये, ज्ञातापनमात्र से अतिरिक्त अन्य परिणामों के अनुभव से विरत होना बाईसवीं अभोक्तृत्वशक्ति है। इस शक्ति से आत्मा ज्ञातृत्वस्वभाव से अतिरिक्त, कर्मकृत अन्य सकल भावों का भोक्ता नहीं होता है। (२३) समस्त कर्मों के अभाव से प्रवृत्त हुआ आत्मप्रदेशों का निश्चलपन जिसका स्वरूप है ऐसी तेईसवी निष्क्रियत्वशक्ति है। इस शक्ति के प्रभाव से कर्मों का क्षय होने पर आत्मा में निष्क्रियता आ जाती है। समस्त कर्मों का क्षय होने पर ऊर्ध्वगमन स्वभाव से यह आत्मा एक समय में सिद्धालय में जाकर विराजमान हो जाता है, फिर अनन्त काल तक उसमें कोई क्रिया नहीं होती। अनादि संसार से जिनमें संकोच-विस्तार होता रहा है तथा मुक्त अवस्था में चरम शरीर से किञ्चित् न्यून परिमाण में जो अवस्थित रहते हैं ऐसे लोकाकाश के बराबर असंख्यात आत्मप्रदेशों का होना जिसका लक्ष्ण है ऐसी चौबीसवीं नियत प्रदेशत्वशक्ति है। इस शक्ति के कारण आत्मा के प्रदेश सदा लोकाकाश के बराबर असंख्यात ही रहते हैं उनमें पुद्गलस्कन्ध के प्रदेशों के समान अनियतपन नहीं रहता। (२५) सब शरीरों में एकस्वरूप होकर रहना जिसका लक्षण है ऐसी पच्चीसवीं स्वधर्मव्यापकत्व शक्ति है। इस शक्ति से आत्मा किसी भी शरीर में रहे अपने ज्ञानदर्शनादि धर्मों में व्याप्त होकर ही रहता है अर्थात् शरीर की विचित्रता से आत्मा अपने धर्मों का परित्याग नहीं करता। (२६) स्व-परके समान, असमान तथा समानासमान के भेद से तीन प्रकार के भावों को धारण करना जिसका स्वरूप है ऐसी छब्बीसवीं साधारण-असाधारणसाधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति है। इस शक्ति से आत्मा ऐसे धर्मों को धारण (२४) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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