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स्याद्वादाधिकार
(११) अरूपी आत्मप्रदेशों में प्रकाशमान लोक- अलोक के आकार से चित्रित उपयोग जिसका लक्षण है ऐसी ग्यारहवीं स्वच्छत्वशक्ति है। इस शक्ति के कारण आत्मप्रदेशों में लोक- अलोक का आकार प्रतिबिम्बित होता है ।
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(१२) स्वयं प्रकाशमान निर्मल स्व-संवेदन से तन्मय बारहवीं प्रकाशशक्ति है। इस शक्ति से आत्मा सदा स्व-संवेदनशील रहता है ।
(१३) क्षेत्र और काल से अमर्यादित चैतन्य के विलासरूप तेरहवीं असंकुचित विकासत्वशक्ति है। इस शक्ति की महिमा से आत्मा का चिद्विलास सर्वक्षेत्र और सर्वकाल में व्याप्त रहता है।
(१४) अन्य के द्वारा न किये जानेवाले तथा अन्य को न करनेवाले एक द्रव्यस्वरूप चौदहवीं अकार्यकारण शक्ति है। इस शक्ति के कारण आत्मा न किसी अन्य द्रव्य के द्वारा की जाती है और न किसी अन्य द्रव्य को करती है।
(१५) पर और आप के निमित्त से होनेवाले ज्ञेयाकार और ज्ञानकारों के ग्रहण करने-कराने के स्वभावरूप पन्द्रवहीं परिणम्य - परिणामकत्व शक्ति है। इस शक्ति के कारण आत्मा ज्ञेय तथा ज्ञनरूप परिणमता है।
(१६) हीनाधिकता से रहित स्वरूप में नियत रहना जिसका लक्षण है ऐसी सोलहवीं त्यागोपदानशून्यत्व शक्ति है । इस शक्ति के कारण आत्मस्वरूप में न किसी अतिरिक्त तत्त्व का त्याग होता है और न किसी न्यून तत्त्व का ग्रहण होता है।
(१७) षट्स्थानपतित वृद्धि-हानिरूप परिणत स्वरूप की प्रतिष्ठा का कारण जो विशिष्ट गुण है तद्रूप सतरहवीं अगुरुलघुत्वशक्ति है । इस शक्ति के कारण आत्मा के गुणों में न सर्वथा वृद्धि होती है और न सर्वथा हानि ही है । (१८) क्रमवृत्तिपन तथा अक्रमवृत्तिपन जिसका लक्षण है ऐसी अठारहवीं उत्पाद-व्यय-: - ध्रुवत्वशक्ति है । इस शक्ति के कारण आत्मा में क्रम से प्रवृत्त होनेवाला उत्पाद-व्यय तथा अक्रम से प्रवृत्त होने वाला ध्रौव्य विद्यमान रहता है।
(१९) द्रव्य के स्वभावभूत ध्रौव्य, व्यय और उत्पाद से आलिङ्गित समान तथा असमान परिणामरूप एक अस्तित्वमात्र से तन्मय उन्नीसवीं परिणामशक्ति है। इस शक्ति के कारण आत्मा में उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यरूप परिणमन होता रहता है और वह परिणमन समान तथा असमान के भेद से दो प्रकार का होता है।
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