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स्याद्वादाधिकार
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(आत्मा) है वह जिस काल में जिस पदार्थ को जानता है उस काल में उस पदार्थरूप हो जाता है। जैसे घटको जाननेवाला आत्मा घटरूप हो जाता है। ऐसा कथन करनेवाला एकान्ती ज्ञाता को ज्ञेयरूप स्वीकार कर अपना नाश करता है। परन्तु अनेकान्त कहता है कि आत्मा घटरूप होने पर भी स्वरूप की अपेक्षा नाश को प्राप्त नहीं हो सकता, वह स्वद्रव्य की अपेक्षा सदा सत्त्वरूप रहता है। इस तरह अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है ।।५।।
जब वह ज्ञानमात्र भाव ‘सर्वद्रव्य मैं ही हूँ' इस तरह परद्रव्य को ज्ञातृद्रव्य रूप से स्वीकृत कर अपने आप को नष्ट करने लगता है तब आत्मद्रव्य में परद्रव्य की सत्ता नहीं है ऐसा सिद्ध करता हुआ अनेकान्त ही उसे नष्ट नहीं होने देता। तात्पर्य यह है कि आत्मा में जिन द्रव्यों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है वे सब द्रव्य में ही हूँ ऐसी श्रद्धा से जब यह आत्मा परद्रव्य को ज्ञाता द्रव्य मानकर अपने आप का नाश करने लगता है तब अनेकान्त कहता है कि परद्रव्यों का तुझ में प्रवेश हुआ ही कब है? जानने मात्र से परद्रव्य तेरा नहीं हो सकता। इस तरह परद्रव्य के असत्त्व को बताकर आत्मा को अनेकान्त ही नष्ट होने बचाता है ।।६।।
जब यह ज्ञानमात्र भाव, परक्षेत्र सम्बन्धी ज्ञेय पदार्थों के आकार परिणमन करने से पर क्षेत्ररूप होते हुए ज्ञान को स्वीकार कर नाश को प्राप्त होता है तब स्वक्षेत्र की अपेक्षा अस्तित्व को बतलाता हुआ अनेकान्त ही उसे उज्जीवित रखता है। तात्पर्य यह है कि जब ज्ञान पर क्षेत्र सम्बन्धी पदार्थों को जानने से अपने को परक्षेत्ररूप मान कर नष्ट होने लगता है तब अनेकान्त यह कहता हुआ उसकी रक्षा करता है कि ज्ञान स्वक्षेत्र की अपेक्षा सदा विद्यमान रहता है केवल परक्षेत्रगत पदार्थों का आकार पड़ने से वह नष्ट नहीं होता ।।७।।
जब वह ज्ञानमात्र भाव, स्वक्षेत्र में रहने के लिये परक्षेत्रगत ज्ञेयों के आकार के त्याग से ज्ञान को तुच्छ करता हुआ अपने आप को नष्ट करता है क्योंकि स्वक्षेत्र में रहकर ही परक्षेत्रगत ज्ञेयों के आकार परिणमन करना ज्ञान का स्वभाव है, इसलिये परक्षेत्र की अपेक्षा नास्तित्व को प्रकट करता हुआ अनेकान्त ही उसे नष्ट नहीं होने देता। तात्पर्य यह है कि जब जब ज्ञान परक्षेत्र सम्बन्धी ज्ञेयों के आकाररूप परिणमन को छोड़कर स्व-क्षेत्र सम्बन्धी ज्ञेयों के आकार परिणमन करता है तब ज्ञान का नाश होता हआ जान पड़ता है उस समय अनेकान्त यह कहता हुआ उसकी रक्षा करता है कि स्वक्षेत्र में रहता हुआ ही ज्ञान परक्षेत्रसम्बन्धी ज्ञेयों के आकाररूप परिणमन करता है क्योंकि ऐसा उसका स्वभाव है। अत: परक्षेत्र की अपेक्षा ही ज्ञान में नास्तित्व का व्यवहार होता है।।८।।
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