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समयसार
जब यह ज्ञानमात्रभाव, पूर्वालम्बित पदार्थों के विनाशकाल में ज्ञान का असत्त्व स्वीकार कर नाश को प्राप्त होता है तब स्वकाल की अपेक्षा सत्त्व को बतलाता हुआ अनेकान्त ही उसे उज्जीवित रखता है। तात्पर्य यह है कि जब ज्ञान पूर्व में
आलम्बित पदार्थों को छोड़कर नवीन पदार्थों का आलम्बन लेता है तब पूर्वालम्बित पदार्थों के आकार का विनाश हो जाता है। इस दशा में कोई यह मानता है कि ज्ञान असद्भाव को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है उसके लिये अनेकान्त यह कहता हुआ उसे जीवित रखता है कि पूर्वालम्बित पदार्थ के नष्ट हो जाने पर भी ज्ञान स्वकाल की अपेक्षा अस्तित्वरूप ही रहता है ।।९।।
जब वह ज्ञानमात्रभाव, ‘पदार्थ के आलम्बनकाल में ही ज्ञान का सत्त्व रखता है अन्य काल में नहीं' ऐसा स्वीकार कर अपने आप को नष्ट करता है तब परकाल की अपेक्षा ज्ञान के असत्त्व को प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे नष्ट नहीं होने देता। तात्पर्य यह है किसी का कहना है कि जिस समय ज्ञान पदार्थों को जानता है उसी समय सत्त्व रहता है अन्य समय में नहीं। इस तरह जानने के अतिरिक्त समय में ज्ञान का नाश हो जाता है इस स्थिति में अनेकान्त ही यह प्रकट करता हुआ उसे नष्ट होने से बचाता है कि परकाल की अपेक्षा ही ज्ञान का असत्त्व हो सकता है स्वकाल की अपेक्षा नहीं।
जब वह ज्ञानमात्रभाव, ज्ञान के विषयभूत परभावरूप परिणमन करने से ज्ञायकभाव को परभावरूप से स्वीकार कर नाश को प्राप्त होता है तब स्वभाव से सत्त्व को प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे उज्जीवित करता है। तात्पर्य यह है-जब ज्ञान में परभाव का विचार आता है तब परभावरूप उसका परिणमन होता है, एतावता ज्ञान परभाव होकर नाश को प्राप्त होने लगता है। उस समय अनेकान्त यह कहता हुआ उसे जीवित रखता है कि स्वभाव से ज्ञान का सदा सत्त्व ही रहता। जानने की अपेक्षा परभावरूप होने पर भी ज्ञान का स्वभाव की अपेक्षा कभी नाश नहीं हो सकता ।।११।।
जब वह ज्ञानमात्रभाव, 'सर्व भाव मैं ही हूँ' इस प्रकार परभाव को ज्ञायकभावरूप से मानकर अपने आपको नष्ट करने लगता है तब परभाव की अपेक्षा असत्त्व को बतलाता हुआ अनेकान्त ही उसे नष्ट नहीं होने देता है। तात्पर्य यह है कि जिस समय परभाव ज्ञान में आते हैं उस समय उन भावों का ज्ञानरूप परिणमन होता है। एतावता ज्ञान का परभावरूप परिणाम स्वीकार करने से ज्ञान के नाश का प्रसङ्ग आता है तब अनेकान्त यह कहकर उसे नष्ट होने से बचाता है कि ज्ञानका असत्त्व परभाव की अपेक्षा है, स्वभाव की अपेक्षा नहीं ।।१२।।
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