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समयसार
जब यह ज्ञानमात्रभाव, 'निश्चय से यह सब आत्मा है' इस प्रकार अज्ञानतत्त्व को ज्ञान स्वरूप से स्वीकार कर विश्व के ग्रहण द्वारा अपना नाश करता है अर्थात् अपने आप को विश्वरूप मानकर अपनी ज्ञानरूपता को नष्ट करता है तब अनेकान्त ही उसे नष्ट नहीं होने देता क्योंकि वह दिखलाता है कि ज्ञान में जो अतद्रूपता है वह पररूप की अपेक्षा है अर्थात् विश्वाकार परिणमन की अपेक्षा है। स्वरूप की अपेक्षा जो ज्ञान विश्व से भिन्न ही है, उसकी ज्ञानरूपता को कौन नष्ट कर सकता है? ।।२।।
जब यह ज्ञानमात्रभाव अनेक ज्ञेयों के आकार से सकल एक ज्ञानाकार को खण्डित करता हुआ नाश को प्राप्त होता है तब द्रव्य की अपेक्षा एकपन को प्रकट करता हुआ अनेकान्त ही उसे उज्जीवित करता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सामने रखे हुए दर्पण सेना का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है, उस प्रतिबिम्ब से दर्पण, हाथी, घोड़ा, रथ आदि पदार्थरूप दिखता है उन पदार्थों को देखकर एक ही दर्पण को हाथी, घोड़ा, रथ आदि नानारूप कहा जाता है उसी प्रकार एक ही ज्ञान में अनेक पदार्थों के आने से ज्ञान को अनेकरूप कहा जाता है। तब अनेकान्त कहता है कि जिस प्रकार दर्पण में हाथी, घोड़ा, रथ आदि के प्रतिबिम्ब के कारण अनेकरूपता है दर्पण की अपेक्षा नहीं, दर्पण तो एक ही है। इसी प्रकार ज्ञानस्वरूप आत्मा में अनेक ज्ञेयाकार परिणमन होने से अनेकरूपता है, द्रव्य की अपेक्षा नहीं, द्रव्य तो एक ही है। इस तरह अनेकान्त ही आत्मा की एकरूपता को जीवित रखता है।।३।।
__ जब वह ज्ञानमात्र भाव, एक ज्ञान का आकार ग्रहण करने के लिये अनेक ज्ञेयों के आकार के त्याग से अपने आप को नष्ट करता है तब पर्यायों की अपेक्षा अनेकपन को प्रकाशित करता हुआ। अनेकान्त ही उसे नष्ट नहीं होने देता है। तात्पर्य यह है कि एक ज्ञानाकार की अपेक्षा ज्ञानमात्रभाव एक है उसमें अनेक ज्ञेयों के आकार प्रतिबिम्बित होने से जो अनेकरूपता दिखाती है वह नहीं है। इस तरह जब एकरूपता के एकान्त का पक्ष लेकर ज्ञानभाव की अनेकरूपता का नाश किया जाता है तब अनेकान्त कहता है कि एक ज्ञानाकार की अपेक्षा ज्ञानभाव में एकरूपता भले ही रहे परन्तु अनेक ज्ञेयाकारों के प्रतिबिम्ब पड़ने से उसमें जो अनेकरूपता अनुभव में आती है उसका निषेध कौन कर सकता है? इस तरह ज्ञानभाव की अनेकरूपता को सिद्ध कर अनेकान्त ही उसे नष्ट होने से बचाता है ।।४।।
जब ज्ञान के विषयभूत परद्रव्य परिणमन करने से ज्ञाता द्रव्य को परद्रव्यरूप मानकर नाश को प्राप्त होता है तब स्वद्रव्य की अपेक्षा सत्त्व को सिद्ध करता हुआ अनेकान्त ही उसे उज्जीवित करता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानमात्रभाव जो ज्ञाताद्रव्य
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