SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याद्वादाधिकार ४०७ इस तरह आत्मा में तत्-अतत्, एक-अनेक, सत्-असत्, तथा नित्य-अनित्यरूप परस्पर विरोधी धर्मों का पुञ्ज प्रकाशमान होता ही है। ____ यहाँ कोई आशङ्का करता है कि आत्मवस्तु के ज्ञानमात्र होने पर भी यदि स्वयं ही अनेकान्त प्रकाशमान रहता है तो फिर अर्हन्त भगवान् के द्वारा उस ज्ञानमात्र की सिद्धि के लिये अनेकान्त का उपेदश किसलिये दिया जाता है? इस आशङ्का का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि अज्ञानी जीवों के ज्ञानमात्र आत्मवस्तु की सिद्धि के अर्हन्त भगवान् के द्वारा अनेकान्त का उपदेश दिया जाता है, हम ऐसा कहते हैं, क्योंकि अनेकान्त के बिना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु ही सिद्ध नहीं होती। उसी को स्पष्ट करते हैं स्वभाव से ही अनेकभावों से भरे हुए विश्व में सब भावों के स्वभाव से अद्वैतपन होने पर द्वैतपन का निषेध नहीं किया जा सकता, इसलिये समस्त वस्तुएँ स्वभाव में प्रवृत्ति और परभाव से व्यावृत्ति रूप होने के कारण दो भावों से युक्त हैं, ऐसा नियम है उन सर्व वस्तुओं में जब यह ज्ञानमात्रभाव अर्थात् आत्मा, शेषभावों के साथ निजरसके भार से प्रवर्तित ज्ञातृ-ज्ञेय-सम्बन्ध के कारण अनादिकाल से ज्ञेयरूप परिणमन होने से ज्ञानतत्त्व को पररूप मानकर अज्ञानी होता हुआ नाश को प्राप्त होता है तब स्वरूप से तत्त्व अर्थात् ज्ञानरूपता को प्रकट करके ज्ञातारूप से परिणमन के कारण उसे ज्ञानी करता हुआ अनेकान्त ही उसका उद्धार करता है- उसे उज्जीवित करता है-नष्ट होने से बचाता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार किसी दर्पण में सम्मुख स्थित मयूर का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है और उस प्रतिबिम्ब के कारण दर्पण मयूर रूप ही दिख रहा है। यहाँ प्रतिबिम्ब की अपेक्षा कोई दर्पण को ‘यह मयूर है' ऐसा कहता है तो इसके इस कथन में दर्पण का अभाव प्रकट होता है। उसी प्रकार स्वच्छता के कारण ज्ञानमात्र आत्मा में अनादिकाल से ज्ञेयों के आकार प्रतिबिम्बित हो रहे हैं और उन प्रतिबिम्बों के कारण ज्ञानमात्र आत्मा ज्ञेयाकार जान पड़ता है। यहाँ ज्ञेयाकार परिणति के कारण कोई ज्ञानमात्र आत्मा को 'यह अमुक ज्ञेय है' ऐसा कहता है, तो इस कथन में आत्मा का अभाव प्रकट होता है। परन्तु अनेकान्त आकर कहता है-नहीं भाई! यह मयूर नहीं है किन्तु दर्पण है, स्वच्छता के कारण इसमें मयूर का प्रतिबिम्बमात्र पड़ रहा है, इस प्रतिबिम्ब की अपेक्षा इसे मयूर भले ही कहते रहो, परन्तु दर्पणपन का नाश नहीं हो सकता, दर्पण ही है। इसी तरह ज्ञान का ज्ञेयाकार परिणमन होने पर भी अनेकान्त कहता है-नहीं भाई! यह ज्ञेय नहीं है किन्तु ज्ञान है, स्वच्छता के कारण इसमें ज्ञेय का प्रतिबिम्बमात्र पड़ रहा है, इस प्रतिबिम्ब की अपेक्षा इसे ज्ञेय भले ही कहते रहो परन्तु ज्ञानपन का नाश नहीं हो सकता, ज्ञान ज्ञान ही है ।।१।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy