SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०. स्याद्वादाधिकार अनुष्टुप अथ स्याद्वादशुद्ध्यर्थं वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिः। उपायोपेयभावश्च मनाग् भूयोऽपि चिन्त्यते ।।२४६।। अर्थ- अब स्याद्वाद की शुद्धि के लिये वस्तुतत्त्व की व्यवस्था और उपायोयभाव का फिर भी कुछ विचार किया जाता है ।।२४६।। निश्चय से स्याद्वाद, वस्तुतत्त्व को सिद्ध करनेवाला अर्हन्त भगवान् का एक अस्खलित शासन है, अर्थात् इसका कोई खण्डन नहीं कर सकता है। यह स्याद्वाद 'सम्पूर्ण पदार्थ अनेकान्तात्मक हैं' ऐसा उपदेश देता है क्योंकि सभी वस्तुएँ अनेकान्तस्वभाववाली हैं। यद्यपि इस समयप्राभृतग्रन्थ में आत्मा को ज्ञानमात्र कहा गया है तो भी इससे स्याद्वाद का कोप नहीं होता है अर्थात् स्याद्वाद की मान्यता में कोई बाधा नहीं आती है, क्योंकि ज्ञानमात्र जो आत्मा नामक वस्तु है वह स्वयं अनेकान्तरूप है। यहाँ जो वस्तु तत्रूप है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है। इस तरह एक ही वस्तु के वस्तुत्व को सिद्ध करनेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करना अनेकान्त है। आत्मा में इसी अनेकान्त की पद्धति से ऊपर कही हुई परस्पर विरुद्ध शक्तियों का समन्वय इस प्रकार होता है यही स्वकीय आत्मा नामक वस्तु यद्यपि ज्ञानमात्र है तथापि आभ्यन्तर में प्रकाशमान ज्ञान स्वरूप की अपेक्षा तो तत्रूप अर्थात् ज्ञानरूप है और बाहर में प्रकट होनेवाले अनन्तज्ञेयों, जो कि स्वरूप से अतिरिक्त परद्रव्य हैं, उनरूप न होने के कारण अतत्रूप भी है अर्थात् ज्ञानरूप नहीं है। यह आत्मा सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चेतन के अंशों के समुदायरूप अखण्ड द्रव्य की अपेक्षा एक है और अखण्ड एक द्रव्य में व्याप्त होकर रहनेवाले सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चेतन के अंशरूप पर्यायों की अपेक्षा अनेकरूप है। स्वकीय द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के परिणमन की शक्तिरूप स्वभाव से युक्त होने के कारण सत्रूप है और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अपरिणमन की शक्तिरूप स्वभाव से युक्त होने के कारण असतरूप है। अनादिनिधन अविभागी एकवृत्तिरूप परिणत होने से नित्य है और क्रम-क्रम से एक-एक समय में प्रवर्तनेवाले अनेक पर्यायांशों में परिणत होने से अनित्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy