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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
करने में समर्थ परमार्थभूत चैतन्यप्रकाशमय परमात्मा है' ऐसा निश्चय करता हुआ इसी समयप्राभृत शास्त्र के प्रतिपाद्य विषयभूत विज्ञानघन एक परमब्रह्म में अर्थात् शुद्धात्म-परिणति में पूर्ण उद्यम के साथ स्थित होता है अर्थात् उसी में अपना उपयोग स्थिर करेगा वह स्वयं निराकुल सुखस्वरूप होगा। इस तरह निराकुल सुख की प्राप्ति ही इस समयप्राभृत शास्त्र के अध्ययन का फल है । अतएव हे भव्यात्माओ! अपने कल्याण के अर्थ इस शास्त्र का अध्ययन करो, कराओ, सुनो, सुनाओ, मनन करो। इसी पद्धति से अविनाशी सुख के पात्र होओगे, ऐसा श्रीगुरु का उपदेश है ।।४१५ ।। अब ज्ञान ही आत्मा का तत्त्व है, यह बतलाने के लिये कलशा कहते हैं
अनुष्टुप्छन्द
इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितम् ।
अखण्डमेकमचलं स्वसंवेद्यमवस्थिम्।।२४५ ।।
अर्थ - इस प्रकार यह आत्मा का तत्त्व ज्ञानमात्र निश्चित हुआ । यह ज्ञान अखण्ड है, एक है, अचल है, स्वसंवेदन के योग्य है तथा अविनाशी है ।
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भावार्थ- आत्मा का निजरूप ज्ञानमात्र ही कहा है। आत्मा अनन्तधर्मों का पिण्ड है, उनमें कई धर्म तो साधारण और कितने ही असाधारण हैं। उन असाधारण धर्मों में भी कई ऐसे हैं जो सर्वसाधारण के गोचर नहीं हैं। चैतन्यसामान्य भी, दर्शनज्ञान पर्यायों के बिना अनुभव में नहीं आता। इन दर्शन- न-ज्ञान में भी जो ज्ञानगुण है वह साकार है और इसी की महिमा है क्योंकि यही सर्व पदार्थों की व्यवस्था योग्य रीति से करता है। इसी कारण मुख्यता से ज्ञानमात्र आत्मा को कहा है सो यही परमार्थ है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि अन्य गुण मिथ्या हैं। यदि कोई ज्ञान को ही मान अन्य को कुछ भी नहीं माने, जो कुछ है सो ज्ञान ही का विकार है ऐसे विज्ञानाद्वैतवादी अथवा ब्रह्मवादी की तरह श्रद्धा कर लेवे तो वह मुनिव्रत पालन करके भी मोक्ष का पात्र नहीं हो सकता है । मन्दकषाय से स्वर्ग चला जावे तो चला जावे, कुछ यथार्थ लाभ नहीं हुआ । इसलिये स्याद्वाद के द्वारा वस्तुतत्त्व को यथार्थ जानना चाहिये ।। २४५।।
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इस प्रकार कुन्दकुन्दस्वामी विरचित समयप्राभृत में सर्वविशुद्धज्ञान नामक नौवें अधिकार का प्रवचन पूर्ण हुआ ।
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