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समयसार
अब ज्ञान पूर्णता को प्राप्त होता है, यह कलशा द्वारा प्रकट करते हैं
अनुष्टुप्छन्द इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् ।
विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत् ।।२४४।। अर्थ- जो विकल्पातीत होने के कारण एक है, जगत् के पदार्थों को प्रकट करने के लिये नेत्रस्वरूप है, अविनाशी है, तथा जो विज्ञानघन और आनन्दमय आत्मा की प्रत्यक्षता को प्राप्त करा रहा है, ऐसा यह ज्ञान पूर्णता को प्राप्त होता है।
भावार्थ- विज्ञानघन तथा परमानन्दमय जो आत्मा है उसका प्रत्यक्ष अनुभव ज्ञान के द्वारा ही होता है। यह ज्ञान विकल्पातीत होने से एक है तथा अविनाशी है और जगत् के पदार्थों को प्रकट करने के लिये चक्षुःस्वरूप है। ऐसा यह ज्ञानपूर्णता को प्राप्त होता है।।२४४।। ___अब श्रीकुन्दकुन्दस्वामी समयप्राभृत को पूर्ण करते हुए उसके फल का प्रतिपादन करते हैं
जो समयपाहुडमिणं पडिहूणं अत्थतच्चदो णाउं।
अत्थे ठाही चेया सो होही उत्तमं सोक्खं ।।४१५।। अर्थ- जो आत्मा इस समयप्राभृत को पढ़कर तथा अर्थ और तत्त्व से उसे अवगत कर इसके अर्थ में स्थिर होगा वह उत्तम सुखस्वरूप होगा।
विशेषार्थ- निश्चय से जो पुरुष समयसारभूत भगवान् परमात्मा का, जो कि विश्व का प्रकाशक होने से विश्वसमय कहा जाता है, प्रतिपादन करने से शब्दब्रह्म के समान आचरण करनेवाले इस समयप्राभृत नामक शास्त्र को पढ़कर समस्त पदार्थों के प्रकाशन में समर्थ परमार्थभूत चैतन्यप्रकाशस्वरूप परमात्मा का निश्चय करता हुआ अर्थ और तत्त्व से इसे जानकर इसी के अर्थभूत एक, पूर्ण तथा विज्ञानघन परमब्रह्म में सम्पूर्ण आरम्भ के साथ अर्थात् पूर्ण प्रयत्न द्वारा स्थित होगा वह साक्षात् तथा उसी समय विकसित एक चैतन्यरस से परिपूर्ण स्वभाव में अच्छी तरह स्थित तथा निराकुल आत्मस्वरूप होने से परमानन्दशब्द के वाच्य, उत्तम तथा अनाकुलता लक्षण से युक्त सुखस्वरूप स्वयं हो जावेगा।
भावार्थ- यह समयप्राभृत नामक शास्त्र, समय अर्थात् आत्मा की सारभूत अवस्था जो परमात्मपद है उसका प्रतिपादन करता है, इसलिये शब्दब्रह्म के समान है। इसका जो महानुभाव अच्छी तरह अध्ययन कर 'समस्त पदार्थों के प्रकाशन
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