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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
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अर्थ- व्यवहारनय, मुनिलिङ्ग और गृहस्थलिङ्ग दोनों लिङ्गों को मोक्षमार्ग कहता है और निश्चयनय सभी लिङ्गों को मोक्षमार्ग में नहीं चाहता है।
विशेषार्थ- निश्चय से श्रमण और श्रमणोपासक अर्थात् मुनि और श्रावक के भेद से दो प्रकार के द्रव्यलिङ्ग मोक्षमार्ग है यह जो कथन करने का प्रकार है वह केवल व्यवहार ही है, परमार्थ नहीं है क्योंकि व्यवहारनय स्वयं अशुद्ध द्रव्य के अनुभवनरूप है अत: उसमें परमार्थपन का अभाव है। और श्रमण तथा श्रमणोपासक के विकल्प से रहित, दर्शनज्ञानचारित्र की प्रवृत्तिमात्र शुद्ध ज्ञान ही एक है इस प्रकार का निस्तुष अर्थात् परद्रव्य से रहित जो अनुभव है वह निश्चयनय है, क्योंकि निश्चयनय ही स्वयं शुद्ध द्रव्य के अनुभवरूप होने से परमार्थ है। इसलिये जो व्यवहार का ही परमार्थ बुद्धि से अनुभव करते हैं वे समयसार का अनुभव ही नहीं करते और जो परमार्थ का निश्चय का ही परमार्थबुद्धि से अनुभव करते हैं वे ही समयसार का अनुभव करते हैं।
भावार्थ- व्यवहारनय की अपेक्षा साक्षात् मुनिलिङ्ग और परम्परा से गृहस्थलिङ्ग मोक्षमार्ग है और निश्चयनय की अपेक्षा दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्रवृत्तिरूप एक ज्ञान ही मोक्षमार्ग है।।४१४।। ___ आगे आचार्य एक परमार्थ के ही अनुभव करने का उपदेश देते हुए कलशा कहते हैं
मालिनीछन्द अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पै
रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः । स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रा
न खलु समयसारादुत्तरं किञ्चिदस्ति।।२४३।। अर्थ- आचार्य कहते हैं कि बहुत कथन तथा बहुत प्रकार के दुर्विकल्पों से रुको, उनसे क्या प्रयोजन है? इस जगत् में निरन्तर इसी एक परमार्थ का चिन्तन किया जाय, क्योंकि निज रस के समूह से परिपूर्ण ज्ञान के विकासरूप समयसार से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है।
भावार्थ- आत्मा का जो ज्ञान मोह की उपाधि से कलङ्कित होकर परपदार्थ में निजत्व की कल्पना से दुःखी हो रहा था, जब उस उपाधि के अभाव से वह परमार्थरूप हो गया, इससे उत्तम और क्या होगा।।२४३।।
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