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समयसार
__ भावार्थ- यद्यपि तुष और चावल जबसे धान के पौधे में उत्पन्न हुए तभी से साथ-साथ हैं तो भी तुष पृथक् वस्तु है और उसके भीतर रहनेवाला चावल पृथक् वस्तु है। इसी प्रकार शरीर और आत्मा अनादिकाल से साथ-साथ रहने से यद्यपि एक दिखते हैं तो भी शरीर अलग है और आत्मा अलग है। शरीर रूप, रस, गन्ध और स्पर्श को लिये हुए पुद्गलद्रव्य की परिणति है और आत्मा ज्ञान-दर्शन स्वभाव को लिये हुए स्वतन्त्र जीवद्रव्य है। मुनिलिङ्ग अथवा गृहस्थलिङ्ग शरीर के परिणमन हैं और समयसार आत्मा की परिणति है। इस भेद-विज्ञान को न समझकर जो केवल शरीर की परिणति से समयसार को प्राप्त करना चाहते हैं वे समयसार के लाभ से वञ्चित रहते हैं। जैसे कोई तुष को ही सर्वस्व समझ मात्र उसी की संभाल में संलग्न रहे और उसके भीतर रहनेवाले चावल की ओर लक्ष्य न दे, तो वह तुष को ही प्राप्त करता है चावल को नहीं, वैसे ही जो शरीर को ही सर्वस्व समझ उसी की संभाल में संलग्न रहे तथा ज्ञान-दर्शनस्वभाव की ओर लक्ष्य न दे तो उसे शरीर की ही प्राप्ति होगी, आत्मा की नहीं, अर्थात् वह इसी संसार में बार-बार जन्म मरण का पात्र होता रहेगा।।२४१।।।
स्वागताछन्द द्रव्यलिङ्गममकारमीलितैर्दृश्यते समयसार एव न।
द्रव्यलिङ्गमिह यत्किलान्यतो ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः।।२४२।।
अर्थ- द्रव्यलिङ्ग के ममकार से जिनके आभ्यन्तर नेत्र मुद्रित हो गये हैं उनके द्वारा समयसार नहीं देखा जाता है क्योंकि इस लोक में जो द्रव्यलिङ्ग है वह निश्चय से अन्याश्रित है और यह जो एक ज्ञान है वह निश्चय से स्वत: है अर्थात् स्वाश्रित है।
भावार्थ- जो मात्र द्रव्यलिङ्ग से मोक्ष मानते हैं वे अन्धे हैं। जैसे कोई चश्मा ही को देखने का उपकरण समझ आँख की परवाह न करे तो उसे नेत्रशक्ति के बिना पदार्थ अवलोकन नहीं होता वैसे ही कोई द्रव्यलिङ्ग को ही मोक्षप्राप्ति का साधक मान निश्चयरत्नत्रय की परवाह न करे तो उसे आभ्यन्तर की निर्मलता के बिना द्रव्यलिङ्ग से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।।२४२।।
___ आगे व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों से मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हैं
ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि मोक्खपहे। णिच्छयणओ ण इच्छइ मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।।४१४।।
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