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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ४०१ भेद से रहित है, द्रव्यदृष्टि होने से एक है, केवलज्ञान रूप ऐसे प्रकाश से सहित है जिसकी सूर्य, चन्द्रमा आदि के प्रकाश से कभी तुलना नहीं कर सकते, ज्ञान-दर्शनरूप जो आत्मा का स्वभाव है उसी के पूर्ण विकास से सहित है तथा रागादिक का अभाव हो जाने से निर्मल है ऐसे समयसार के दर्शन उन पुरुषों को आज भी दुर्लभ हैं जो मात्र व्यवहारमार्ग में चलकर केवल द्रव्यलिंग में ही ममताभाव रखते हैं-उसीको मोक्षमार्ग मानते हैं। वास्तव में ऐसे पुरुष तत्त्वज्ञान से रहित है, इसीलिये वे इस संसार में अनन्तबार मुनिपद धारण करके भी संसार के ही पात्र बने रहते हैं।।२४०।। आगे यही अर्थ गाथा में कहते हैंपाखंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु। कुव्वंति ज ममत्तं तेहिं ण णायं समयसारं।।४१३।। अर्थ- जो मुनियों के लिङ्ग में तथा नानाप्रकार के गृहस्थों के लिङ्ग में ममता करते हैं उन्होंने समयसार को नहीं जाना है। विशेषार्थ- निश्चय से जो पुरुष 'मैं श्रमण हूँ' अथवा 'श्रमणों का उपासक हूँ' इस प्रकार द्रव्यलिङ्ग की ममता से मिथ्या अहंकार करते हैं वे अनादिकाल से चले आये व्यवहार में विमूढ हैं तथा उत्कृष्ट भेदज्ञान से युक्त निश्चय को अप्राप्त हैं ऐसे जीव परमार्थ सत्यरूप भगवान् समयसार को नहीं देखते हैं। भावार्थ- जो पुरुष मुनिवेष अथवा गृहस्थों के नानाप्रकार के वेष को धारण कर यह मानते हैं कि मैं मुनि हूँ अथवा ऐलक, क्षुल्लक आदि हूँ तथा मेरा यही वेष मुझे मोक्ष की प्राप्ति करा देनेवाला है, इस प्रकार मात्र व्यवहार में मूढ़ रहकर निश्चय मोक्षमार्ग की ओर लक्ष्य नहीं देते। आचार्य कहते हैं कि ऐसे पुरुषों ने समयसार को जाना भी नहीं है, उसकी प्राप्ति होना तो दुर्लभ ही है।।४१३।। आगे यही भाव कलशा में प्रकट करते हैं वियोगिनीछन्द व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थं कलयन्ति नो जनाः। तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम्।।२४१ ।। अर्थ- जिनकी बुद्धि व्यवहार में ही विमूढ है ऐसे मनुष्य परमार्थ को नहीं प्राप्त करते हैं क्योंकि जिनकी बुद्धि तुषज्ञान में ही विमुग्ध हो रही है ऐसे पुरुष इस संसार में तुष को ही प्राप्त करते हैं, चावल को नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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