SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०० समयसार तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति।।२३९।। अर्थ- जो यह सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र स्वरूप एक मोक्ष मार्ग निश्चित है उसी में जो पुरुष स्थिति को प्राप्त होता है, उसी का निरन्तर चित्त में ध्यान करता है, और अन्य द्रव्यों का स्पर्शन न करता हआ उसी में निरन्तर विहार करता है वह अवश्य ही नित्य उदित रहनेवाले समयसार को आत्मा की शुद्ध परिणति रूप मोक्ष को शीघ्र ही प्राप्त होता है। भावार्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप निश्चयरत्नत्रय की जो एकता है वह मोक्ष का निश्चित एक ही मार्ग है, इसके अतिरिक्त अन्य मार्गों से मोक्ष की प्राप्ति अशक्य है। इसलिये जो इसी मोक्षमार्ग में स्थित है, इसीका रातदिन अपने हृदय में ध्यान करता है तथा अन्य द्रव्यों को अपने उपयोग का विषय न बनाकर इसी रत्नत्रय को तथा उसके आधारभूत जीवद्रव्य को ही अपने उपयोग का विषय बनाता है वह नियम से शीघ्र ही जिसका नित्य उदय रहता है ऐसे समयसार को प्राप्त होता है। व्यवहाररत्नत्रय निश्चयरत्नत्रय का साधक होने से मोक्षमार्ग कहा जाता है। निश्चय से रहित मात्र व्यवहाररत्नत्रय से मोक्ष की प्राप्ति दुर्लभ है।।२३९।। अब जो मात्र व्यवहारमार्ग का आश्रय करते हैं वे समयसार के दर्शन से वञ्चित रहते हैं, यह भाव कलशा में प्रकट करते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द ये त्वेनं परिहत्य संवृतिपथप्रस्थापितेनात्मना लिङ्गे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः। नित्योद्योतमखण्डमेकमतुलालोकं स्वभावप्रभा प्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते।।२४०।। अर्थ- और तत्त्वज्ञान से च्युत हुए जो पुरुष इस निश्चय मोक्षमार्ग को छोड़कर व्यवहार मोक्षमार्ग में प्रस्थान करने वाले अपने आपके द्वारा मात्र द्रव्यलिङ्ग में ममता को धारण करते हैं अर्थात् उसे ही मोक्षमार्ग मानते हैं वे उस निर्मल समयसार का आज भी अवलोकन नहीं कर रहे हैं जो नित्य उदयरूप है, अखण्ड हैं, एक है, अनुपम प्रकाश से युक्त है तथा स्वभाव की प्रभा का प्राग्भार है। भावार्थ- आत्मा की शुद्ध परिणति को समयसार कहते हैं, इसी को परमात्मपद कहते हैं, यह समयसार निरन्तर उदयरूप रहता है अर्थात् एकबार प्राप्त होने पर फिर कभी भी नष्ट नहीं होता, और जो अखण्ड है अर्थात् गुणगुणी के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy