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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३९९ विशेषार्थ- यतः द्रव्यलिङ्ग मोक्ष का मार्ग नहीं है इसलिये सभी द्रव्यलिङ्गों से व्यामोह को छोड़कर दर्शनज्ञानचारित्र में ही आत्मा को लगाना चाहिये, क्योंकि यही मोक्षमार्ग है यह जिनागम की आज्ञा है। अब दर्शनज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग है, यह कलशा में दिखाते हैं __ अनुष्टुप्छन्द दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः। एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा।।२३८।। अर्थ- दर्शन, ज्ञान ओर चारित्र इन तीनरूप ही आत्म का तत्त्व है, यही मोक्षमार्ग है, इसलिये मोक्ष के अभिलाषी पुरुष के द्वारा यही एक मार्ग सदा सेवन करने योग्य है।।२३८।। आगे इसी मोक्षमार्ग में आत्मा को लगाओ, ऐसा उपदेश करते हैंमोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेव। तत्थेव विहरणिच्चं मा विहरसु अण्ण दविएसु।।४१२।। अर्थ- उसी मोक्षमार्ग में आत्मा को लगाओ, उसी का ध्यान करो, उसी में नित्य विहार करो, अन्यद्रव्यों में विहार न करो। विशेषार्थ- आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि हे भव्य! यद्यपि यह आत्मा अनादिकाल से अपनी बुद्धि के दोष से राग-द्वेष के वशीभूत होकर प्रवृत्त हो रहा है तो भी अपनी ही बुद्धि के गुण से उस आत्मा को वहाँ से निवृत्त कर दर्शनज्ञानचारित्र में नित्य ही अत्यन्त निश्चलरूप से स्थापित करो तथा अन्य पदार्थ सम्बन्धी चिन्ताओं को त्यागकर अत्यन्त एकाग्र हो दर्शन ज्ञानचारित्र का ही ध्यान करो। तथा समस्त कर्मचेतना और कर्मफल चेतना का त्याग कर शुद्ध ज्ञानचेतनामय दर्शनज्ञानचारित्र का ही अनुभव करो। तथा द्रव्यस्वभाव के वश से प्रत्येक क्षण में बढ़ते हुए परिणामपन से तन्मय परिणाम होकर दर्शनज्ञानचारित्र में ही विहार करो तथा एक निश्चल ज्ञानस्वरूप का ही अवलम्बन ज्ञेयरूप उपाधि के कारण सभी ओर से दौड़कर आते हुए सभी परद्रव्यों में किञ्चिन्मात्र भी विहार मत करो।।४१२।। आगे यही भाव कलशा में दर्शाते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द एको मोक्षपथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मक स्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतसि। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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