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________________ ३९८ समयसार विशेषार्थ-कितने ही जन अज्ञान से द्रव्यलिङ्ग को ही मोक्षमार्ग मानते हुए मोह से द्रव्य लिङ्ग को ही ग्रहण करते हैं, सो वह मानना संगत नहीं है क्योंकि समस्त भगवान् अरहन्तदेवों ने शुद्ध ज्ञान से तन्मय होने के कारण द्रव्यलिङ्ग के आश्रयभूत शरीर से ममकार का त्याग किया है तथा शरीराश्रित द्रव्यलिङ्ग भिन्न आत्मस्थित दर्शन-ज्ञान-चारित्र की ही मोक्षमार्गरूप से उपासना देखी जाती है।।४०८।४०९।। अनन्तर इसी को सिद्ध करते हैंण वि एस मोक्खमग्गो पाखंडीगिहिमयाणि लिंगाणि । दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विति ।।४१०।। अर्थ- जो मुनि और गृहस्थरूप लिङ्ग हैं वे मोक्षमार्ग नहीं हैं क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् दर्शन, ज्ञान और चारित्र को ही मोक्षमार्ग कहते हैं। विशेषार्थ- निश्चय से द्रव्यलिङ्ग मोक्षमार्ग नहीं है क्योंकि शरीराश्रित होने से वह परद्रव्य है। इसलिये र्दान-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है क्योंकि आत्माश्रित होने से वे स्वद्रव्य हैं। यहाँ पर द्रव्यलिङ्ग का मोह छुड़ाकर सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र में लगाने का उपदेश है। सो इसका आशय यह है कि द्रव्यलिङ्ग शरीराश्रित है उसी को कोई मोक्षमार्ग मान ले तथा आत्माश्रित जो सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र हैं उनकी ओर लक्ष्य न दे तो उसे वास्तविक वस्तुस्वरूप बतलाने के लिये आचार्य महाराज का उपदेश है कि द्रव्यलिङ्ग के ममकार को त्यागकर आत्माश्रितगुणों का सेवन करो, वही मोक्षमार्ग है। कुछ देशव्रत और महाव्रत के छुड़ाने का उपदेश नहीं है क्योंकि बिना मुनिलिङ्ग धारण किये मोक्ष की प्राप्ति शक्य नहीं है। हाँ, यह अवश्य है कि यावती प्रवृत्ति है वह बन्ध का कारण है अत: ज्ञानी जीव देशव्रत तथा महाव्रत पालते हैं और उनके निर्दोष पालने का यत्न भी करते हैं। परन्तु उस प्रवृत्ति को बन्धमार्ग ही समझते हैं, मोक्षमार्ग नहीं।।४१०।। फिर भी इसी अर्थ को दृढ़ करने का उपदेश हैतह्या जहित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिए। दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज मोक्खपहे।।४११।। अर्थ- इसलिये गृहस्थ-प्रतिमाधारियों और गृहत्यागी-मुनियों के द्वारा गृहीत लिङ्गों को छोड़कर आत्मा को दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग में युक्त करो। ऐसा श्रीगुरुओं का उपदेश है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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