SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३९७ जो परद्रव्य न ग्रहण किया जा सकता है और न छोड़ा जा सकता है सो वह आत्मा का कोई प्रायोगिक अथवा स्वाभाविक गुण है। इसलिये जो विशुद्ध चेतयिता है वह जीवाजीव द्रव्यों में न तो कुछ ग्रहण करता है और न कुछ त्यागता ही है। विशेषार्थ- ज्ञान नामक जो गुण है वह न तो परद्रव्य को किञ्चितन्मात्र ग्रहण करता है और न परवस्तु को किञ्चिन्मात्र त्यागता है क्योंकि उसमें प्रयोगिक अथवा वैस्रसिक-स्वाभाविक गुण का ऐसा ही समर्थ्य है। उस सामर्थ्य से ज्ञान के द्वारा परद्रव्य न ग्रहण किया जा सकता है और न छोड़ा जा सकता है। अमूर्त आत्मप्रत्ययरूप जो ज्ञान है उसका परद्रव्य आहार नहीं हो सकता, क्योंकि आहार मूर्तपुद्गलद्रव्य रूप है। इसलिये ज्ञान आहारक नहीं है, अतएव ज्ञान के देह है, ऐसी शङ्का नहीं करना चाहिये।।४०५-४०७।। अब आगामी गाथाओं की अवतणिका रूप कलशा कहते हैं अनुष्टुप्छन्द एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते। ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिङ्गं मोक्षकारणम्।।२३७।। अर्थ- इस तरह जब शुद्ध ज्ञान के देह ही नहीं है तब देहरूप जो लिङ्ग है वह आत्मा के मोक्ष का कारण नहीं हो सकता।।२३७।। अब यही भाव गाथाओं में कहते हैंपाखडीलिंगाणि व गिहलिंगाणि व बहुप्पयाराणि । घित्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति।।४०८।। ण उ होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा । लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरिताणि सेयंति ।।४०९।। (युग्मम्) अर्थ- मुनिलिङ्ग अथवा बहुत प्रकार के गृहस्थलिङ्गों को ग्रहण कर अज्ञानी जन कहते हैं कि यह लिङ्ग मोक्षमार्ग है, परन्तु लिङ्ग मोक्षमार्ग नहीं है क्योंकि शरीर से ममत्व रहित अरहंतदेव लिङ्ग को छोड़कर दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy