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________________ समयसार उपभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।।१९३।। सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के द्वारा चेतन-अचेतन पदार्थों का जो उपभोग करता है वह सब निर्जरा के निमित्त करता है। अहो! सम्यग्दृष्टि जीव की यह कैसी उत्कृष्ट महिमा है, कि उसके पूर्वबद्ध कर्म उदय में आ रहे हैं और उनके उदयकाल में होनेवाला उपभोग भी हो रहा है परन्तु उससे नवीन बन्ध नहीं होता, किन्तु पूर्वबद्ध कर्म अपना फल देकर खिर जाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव कर्म और कर्म के फल का भोक्ता अपने आप को नहीं मानता। उनका ज्ञायक तो होता है पर भोक्ता नहीं होता। भोक्ता अपने ज्ञानस्वभाव का ही होता है यही कारण है कि उसकी वह प्रवृत्ति निर्जरा का कारण बनती है। सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान और वैराग्य की अद्भुत सामर्थ्य है। ज्ञानसामर्थ्य की महिमा बतलाते हुए कुन्दकुन्दस्वामी ने कहा है कि जिस प्रकार विषका उपभोग करता हुआ वैद्य पुरुष मरण को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष पुद्गलकर्म के उदय का भोग करता हुआ बन्ध को प्राप्त नहीं होता। वैराग्यसामर्थ्य की महिमा बतलाते हुए कहा है कि जिस प्रकार अरतिभाव से मदिरा का पान करनेवाला मनुष्य मद को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार अरतिभाव से द्रव्य का उपभोग करनेवाला ज्ञानी पुरुष बन्ध को प्राप्त नहीं होता। कैसी विचित्र महिमा ज्ञान और वैराग्य की है कि उनके होने पर सम्यग्दृष्टि जीव मात्र निर्जरा को करता है बन्ध को नहीं। अन्य ग्रन्थों में इस निर्जरा का प्रमुख कारण तपश्चरण कहा गया है। परन्तु कुन्दकुन्दस्वामी ने तपश्चरण को यथार्थ तपश्चरण बतानेवाला जो ज्ञान और वैराग्य है उसी का सर्वप्रथम वर्णन किया है । ज्ञान और वैराग्य के बिना तपश्चरण निर्जरा का कारण न होकर शुभबन्ध का कारण होता है। अब प्रश्न यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव के क्या निर्जरा ही निर्जरा होती है, बन्ध बिलकुल नहीं होता? इसका उत्तर करणानयोग की पद्धति से यह होता है कि सम्यग्दृष्टि जीव के निर्जरा प्रारम्भ हो गई। मिथ्यादृष्टि जीव के ऐसी निर्जरा आज तक नहीं हुई, किन्तु सम्यग्दर्शन होते ही वह ऐसी निर्जरा का पात्र बन जाता है। 'सम्यग्दष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षीणमोहजिनाः' आगम में गणश्रेणी निर्जरा के ये दश स्थान बतलाये हैं इनमें निर्जरा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। सम्यग्दृष्टि जीव के निर्जरा और बन्ध दोनों चलते हैं। निर्जरा के कारणों से निर्जरा होती है और बन्ध के कारणों से बन्ध होता है। जहाँ बन्ध का सर्वथा अभाव होकर मात्र निर्जरा ही निर्जरा होती है ऐसा तो सिर्फ चौदहवाँ गुणस्थान है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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