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________________ प्रस्तावना xli उसके पूर्व चतुर्थ गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक निर्जरा और बन्ध दोनों चलते हैं। यह ठीक है कि जैसे-जैसे यह जीव उपरितम गुणस्थानों में चढ़ता जाता है वैसे-वैसे निर्जरा में वृद्धि और बन्ध में न्यूनता होती जाती है। सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान और वैराग्यशक्ति की प्रधानता हो जाती है, इसलिये बन्ध के कारणों की गौणता कर ऐसा कथन किया जाता है कि सम्यग्दृष्टि के निर्जरा ही होती है, बन्ध नहीं। इसी निर्जराधिकार में कुन्दकुन्दस्वामी ने सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का विशद वर्णन किया है। यह अधिकार १९३ से लेकर २३६ गाथा तक चलता है। बन्धाधिकार आत्मा और पौद्गलिक कर्म दोनों ही स्वतन्त्र द्रव्य है और दोनों में चेतनअचेतन की अपेक्षा पूर्व पश्चिम जैसा अन्तर है। फिर भी इनका अनादिकाल से संयोग बन रहा है । जिस प्रकार चुम्बक में लोहे को खींचने की और लोहा में खिंचने की योग्यता है, इसी तरह आत्मा में कर्मरूप पुद्गल को खींचने की और कर्मरूप पुद्गल में खिंचने की योग्यता है । अपनी-अपनी योग्यता के कारण दोनों का एकक्षेत्रावगाह हो रहा है। इसी एकक्षेत्रावगाह को बन्ध कहते हैं । इस बन्धदशा के कारणों का वर्णन करते हुए आचार्य ने स्नेह अर्थात् रागभाव को ही प्रमुख कारण बतलाया है। अधिकार के प्रारम्भ में ही वे एक दृष्टान्त देते हैं कि जिस प्रकार धूलि बहुल स्थान में कोई मनुष्य शस्त्रों से व्यायाम करता है, ताड़ तथा केले आदि के वृक्षों को छेदता भेदता है, इस क्रिया से उसके साथ धूलिका सम्बन्ध होता है सो इस सम्बन्ध के होने में कारण क्या है? उस व्यायामकर्ता के शरीर में जो स्नेह - तैल लग रहा है वही उसका कारण है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव इन्द्रियविषयों में व्यापार करता है उस व्यापार के समय जो कर्मरूपी धूलिका सम्बन्ध उसकी आत्मा के साथ होता है उसका कारण क्या है? उसका कारण भी उसकी आत्मा में विद्यमान स्नेह अर्थात् रागभाव है। यह रागभाव जीव का स्वभाव नहीं, किन्तु विभाव है और वह भी द्रव्यकर्म की उदयावस्थारूप कारण से उत्पन्न हुआ है । आस्रवाधिकार में आस्रव के जो चार प्रत्यय - मिथ्यादर्शन, अविरमण, कषाय और योग बतलाये हैं वे ही बन्ध के भी प्रत्यय – कारण हैं। इन्हीं प्रत्ययों का संक्षिप्त नाम राग-द्वेष अथवा अध्यवसानभाव है। इन अध्यवसान भावों का जिनके अभाव हो जाता है वे शुभअशुभकर्मों के साथ बन्ध को प्राप्त नहीं होते। जैसा कि कहा है दाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण गुणे ण लिंपंति । । २८० ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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