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प्रस्तावना
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आत्मीयभाव-उनको अपना मानना। अत: भेदज्ञान के द्वारा उन्हें अपने स्वरूप से पृथक् समझना यही उनके नष्ट करने का वास्तविक उपाय है। इस भेद-विज्ञान महिमा का गान करते हुए श्रीअमृतचन्द्रसूरि ने कहा है
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।१३१।। जितने आज तक सिद्ध हुए हैं वे सब भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जितने संसार में बद्ध हैं वे भेद विज्ञान के अभाव से ही बद्ध हैं।
इस भेदविज्ञान की भावना तबतक करते रहना चाहिये जब तक कि ज्ञान पर से च्युत होकर ज्ञान में ही प्रतिष्ठित नहीं हो जाता। परपदार्थ से ज्ञान को भिन्न करने का पुरुषार्थ चतुर्थ गुणस्थान से शुरू होता है और दशम गुणस्थान के अन्तिम समय में समाप्त होता है। वहाँ यह जीव परमार्थ से अपनी ज्ञानधारा को रागादिक की धारा से सर्वथा पृथक् कर लेता है। इस दशा में इस जीव का ज्ञान सचमुच ही ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाता है और इसीलिये इस जीव के रागादिक के निमित्त से होनेवाले बन्ध का सर्वथा अभाव हो जाता है। मात्र योग के निमित्त से सातावेदनीय का आस्रव और बन्ध होता है सो भी सांपरायिक आस्रव नहीं तथा स्थिति और अनुभाग बन्ध नहीं । मात्र ईर्यापथ आस्रव और मात्र प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है। अन्तर्मुहूर्त के भीतर ऐसा जीव नियम से केवलज्ञान प्राप्त करता है। अहो! भव्य प्राणियों! संवर के इस साक्षात् मार्गपर अग्रसर होओ, जिससे आस्रव और बन्ध से छुटकारा मिले।
संवराधिकार १८१ से १९२ गाथा तक चलता है। निर्जराधिकार
सिद्धों के अनन्तवें भाग और अभव्यराशि से अनन्तगणित कर्म परमाणुओं की निर्जरा संसार के प्रत्येक प्राणी के प्रतिसमय हो रही है। पर ऐसी निर्जरा से किसी का कल्याण नहीं होता, क्योंकि जितने कर्म परमाणुओं की निर्जरा होती है उतने ही कर्म परमाणु आस्रवपूर्वक आकर बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं। कल्याण उस निर्जरा से होता है जिसके होने पर नवीन कर्म परमाणुओं का आस्रव और बन्ध नहीं होता। इसी उद्देश्य से यहाँ कुन्दकुन्द महाराज ने संवर के बाद ही निर्जरा पदार्थ का निरूपण किया है। संवर के बिना निर्जरा की कोई सफलता नहीं है।
निर्जराधिकार के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि
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