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________________ xxxviii कर्मों की स्थिति इससे भी संख्यात हजार सागर कम हो जाती है । वैसे भी अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के ४१ प्रकृतियों का आस्रव और बन्ध तो रुक ही जाता है । वास्तविक बात है कि सम्यदृष्टि जीव के सम्यग्दर्शन रूप परिणामों से बन्ध नहीं होता उसके जो बन्ध होता है। उसका कारण अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों का उदय है। सम्यग्दर्शनादि भाव मोक्ष के कारण है। इसी बात को अमृतचन्द्रसूरि ने निम्नाङ्कित कलशा में स्पष्ट किया है समयसार रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसंभवः । तत एव न बन्धोऽस्य, ते हि बन्धस्य कारणम्।। ११९ ।। चूँकि ज्ञानी जीव के राग-द्वेष और विमोह का अभाव है, इसलिये उसके बन्ध नहीं होता। वास्तव में रागादिक भाव ही बन्ध के कारण हैं । यह आस्रवाधिकार १६४ से १८० गाथा तक चलता है। संवराधिकार आस्रव का विरोधी तत्त्व संवर है अतः आस्रव के बाद ही उसका वर्णन किया जा रहा है। 'आस्रवनिरोधः संवर:' आस्रव का रुक जाना संवर है। यद्यपि अन्य ग्रन्थकारों ने गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चरित्र को संवरं कहा है किन्तु इस अधिकार में कुन्दकुन्दस्वामी ने भेदविज्ञान को ही संवर का मूल कारण बतलाया है। उनका कहना है कि उपयोग, उपयोग में ही है, क्रोधादिक में नहीं है और क्रोधादिक क्रोधादिक में ही हैं उपयोग में नही हैं । कर्म और नोकर्म तो स्पष्ट ही आत्मा से भिन्न है अतः उनसे भेदज्ञान प्राप्त करने में महिमा नहीं है, महिमा तो उन रागादि भावकर्मों से अपने ज्ञानोपयोग को भिन्न करने में है, जो तन्मयीभाव को प्राप्त होकर एक दिख रहे हैं । अज्ञानी जीव इस ज्ञानधारा और रागादिधारा को भिन्न-भिन्न नहीं समझ पाता, इसीलिये वह किसी पदार्थ का ज्ञान होने पर उनमें तत्काल राग-द्वेष करने लगता है । परन्तु ज्ञानी जीव उन दोनों धाराओं के अन्तर को समझता है इसलिये वह किसी पदार्थ को देखकर उनका ज्ञाता द्रष्टा तो रहता है परन्तु राग, द्वेषी नहीं बनता । जहाँ यह जीव रागादिक को अपने ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव से भिन्न अनुभव करने लगता है वहीं उनके सम्बन्ध से होनेवाले राग-द्वेष से बच जाता है। राग-द्वेष से बच जाना ही सच्चा संवर है । किसी वृक्ष को उखाड़ना है तो उसके पत्ते नोंचने से काम नहीं चलेगा, उसकी जड़पर प्रहार करना होगा। इसी तरह आस्रव और बन्ध को रोकना है तो मात्र क्रियाकाण्ड से काम नहीं चलेगा, किन्तु उसकी जड़पर प्रहार करना होगा। रागद्वेष की जड़ है परपदार्थों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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