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________________ प्रस्तावना rrrvii रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवएसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज।।१५० ।। रागी जीव कर्मों को बाँधता है और विराग को प्राप्त हुआ जीव कर्मों को छोड़ता है, यह श्री जिनेश्वर का उपदेश है, इससे कर्मों में राग नहीं करो।। यहाँ आचार्य ने शुभ या अशुभ दोनों प्रकार के राग को बन्ध का कारण कहा है। यह बात जूदी है कि शुभराग से शुभकर्म का बन्ध हो और अशुभराग से अशुभकर्म का बन्ध हो। यह पुण्यपापाधिकार १४५ से १६३ गाथा तक चला है। .. आस्रवाधिकार संक्षेप में जीवद्रव्य की दो अवस्थाएँ हैं—एक सांसारिक और दूसरी मुक्त। इनमें सांसारिक अवस्था अशुद्ध होने से त्याज्य है और मुक्त अवस्था शुद्ध होने से उपादेय है। संसार अवस्था का कारण आस्रव और बन्धतत्व हैं तथा मोक्ष अवस्था का कारण संवर और निर्जरा तत्त्व हैं। आत्मा के जिन भावों से कर्म आते हैं उन्हें आस्रव कहते हैं। ऐसे भाव चार हैं- १. मिथ्यात्व, २. अविरमण, ३. कषाय और ४. योग। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रकार ने इन चार के सिवाय प्रमाद का वर्णन और किया है। परन्तु कुन्दकुन्दस्वामी प्रमाद को कषाय का ही एक रूप मानते हैं, अत: उन्होंने चार आस्रावों का वर्णन किया है। इन्हीं चार के निमित्त से आस्रव होता है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों ही आस्रव हैं। उसके बाद अविरतसम्यग्दृष्टि तक अविरमण, कषाय और योग ये तीन आस्रव हैं। पंचमगुणस्थान में एकदेश अविरमण का अभाव हो जाता है। छठवें गुणस्थान से दशवें तक कषाय और योग ये दो आस्रव हैं और उसके बाद ११, १२ और १३ गुणस्थानों में सिर्फ योग आस्रव है तथा चौदहवें गुणस्थान में आस्रव बिल्कुल ही नहीं है। इस अधिकार की खास चर्चा यह है कि ज्ञानी अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव के आस्रव और बन्ध नहीं होते। जबकि कारणानुयोग की पद्धति से अविरतसम्यग्दृष्टि आदि को लेकर तेरहवें गुणस्थान तक क्रम से ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १, १, १, प्रकृतियों का बन्ध बताया है। यहाँ कुन्दकुन्दस्वामी का यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार मिथ्यात्व तथा अतन्तानुबन्धी के उदयकाल में इस जीव के तीव्र अर्थात् अनन्त संसार का कारण बन्ध होता था वैसा बन्ध सम्यग्दृष्टि जीव के नहीं होता। सम्यग्दर्शन की ऐसी विचित्र महिमा है कि उसके होने के पूर्व बध्यमान कर्मों की स्थिति घटकर अन्त: कोड़ाकोड़ी प्रमाण हो जाती है और सत्ता में स्थित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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