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________________ xxrvi समयसार की जो शुभोपयोगरूप परिणति है उसे पुण्य कहते हैं, ऐसा पुण्य शभकर्म के बन्धका कारण है, कर्मक्षय का कारण नहीं हैं। परन्तु अज्ञानी जीव इस अन्तर को नहीं समझ पाता है। यहाँ पुण्यरूप आचरण का निषेध नहीं है किन्तु पुण्याचारण को मोक्ष का मार्ग मानने का निषेध किया है। ज्ञानी जीव अपने पद के अनुरूप पुण्याचरण करता है और उसके फलस्वरूप प्राप्त हुए इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के वैभव का उपभोग भी करता है। परन्तु श्रद्धा में यही भाव रहता है कि हमारा यह पुण्याचरण मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है तथा उसके फलस्वरूप जो वैभव प्राप्त हुआ है वह मेरा स्वपद नहीं है। यहाँ इतनी ध्यान में रखने के योग्य है कि जिस प्रकार पापाचरण बुद्धिपूर्वक छोड़ा जाता है उस प्रकार बुद्धिपूर्वक पुण्याचरण नहीं छोड़ा जाता—वह तो शुद्धोपयोग की भूमिका में प्रविष्ट होने पर स्वयं छूट जाता है। जिनागमन का कथन नयसापेक्ष होता है, अतः शुद्धोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोगरूप पुण्य को त्याज्य कहा गया है। परन्तु अशुभोपयोगरूप पाप की अपेक्षा उसे उपादेय बताया गया है। शुभोपयोग में यथार्थमार्ग जल्दी मिल सकता है परन्तु अशुभोपयोग में उसकी संभावना ही नहीं है। जैसे प्रात: काल सम्बन्धी सूर्यलालिमा का फल सुर्योदय है और सायंकाल सम्बन्धी लालिमा का फल सुर्यास्त है। इसी आपेक्षिक कथन को अंगीकृत करते हुए श्री पूज्यपादस्वामी ने इष्टोपदेश में शुभोयोगरूप व्रताचरण से होनेवाले देवपद को कुछ अच्छा कहा है और अशुभोपयोगरूप पापाचरण से होनेवाले नारकपद को बुरा कहा है वरं व्रतैः पदं दैवं नाव्रतैर्वत नारकम्। छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान्।। २।। व्रतों से देवपद पाना अच्छा है परन्तु अव्रतों से नारकपद पाना अच्छा नहीं है क्योंकि छाया और धूप में बैठकर प्रतीक्षा करनेवालों में महान् अन्तर है। अशुभोपयोगरूप पाप सर्वथा त्याज्य ही है और शुभोपयोग उपादेय ही है। परन्तु शुभोपयोग पात्रभेद की अपेक्षा हेय और उपादेय दोनों रूप है। यद्यपि किन्हींकिन्हीं आचार्यों ने सम्यग्दृष्टि के पुण्य को निर्जरा का कारण बताया है और मिथ्यादृष्टि के पुण्य को बन्ध का कारण। परन्तु वस्तुतत्त्व का यथार्थ विश्लेषण करने पर यह बात अनुभव में आती है कि सम्यग्दृष्टि जीव के मोह का आंशिक अभाव हो जाने से जो आंशिक निर्मोह अवस्था हुई है वह उसकी निर्जरा का कारण है और जो शुभरागरूप अवस्था है वह बन्ध का ही कारण है। बन्ध के कारणों की चर्चा करते हुए कुन्दकुन्दस्वामी ने तो एक ही बात कही है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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