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समयसार
पूर्णज्ञान ही परमार्थ से शुद्ध है, यही आत्मा की साक्षात् प्राप्ति है, उसी को देखना-जानना और आचरण में लाना चाहिये। ___आत्मा का यह देखना आदि तीन प्रकार से होता है—एक तो जब आत्मा में मिथ्यात्व का अभाव होता है तब उसकी श्रद्धा परोक्षज्ञान तथा अनन्तानुबन्धी कषाय के अभाव से आंशिक स्वरूपचर्या की उद्भूति रूप होती है और तभी से यह आत्मा चरणानुयोगशास्त्र की पद्धति से मिथ्यात्व, अन्याय और अभक्ष्य का त्यागी होता है। दूसरा प्रकार यह है कि ज्ञान-श्रद्धान होने के अनन्तर निखिल परिग्रह का त्याग कर इसी तत्त्व का अभ्यास करना, अपने उपयोग को निखिल पदार्थों से हटा कर आपमें ही स्थिर करना। इसका यह तात्पर्य है कि ज्ञान में कोई भी ज्ञेय आवे, राग-द्वेष से उसकी रक्षा करना। अर्हद्भक्ति में अर्हन्त भावना के गुणों का विचार होता है और स्वाध्याय के समय भी अर्हन्त परमेष्ठी के गुणों का विचार होता है परन्तु अर्हद्भक्ति बन्ध का कारण है और स्वाध्याय निर्जरा का कारण होता है। यह अन्तर रागांश के सद्भाव और असद्भाव से ही पड़ता है अत: उपयोग किसी ज्ञेय में जावे, उसमें राग-द्वेष न होना ही महत्त्वपद की जड़ है। यहाँ पर ज्ञान की मुख्यता का कथन है सो जैसा शुद्धनय के द्वारा आत्मस्वरूप को सिद्ध समान जान श्रद्धान किया था, वैसा ही ध्यान में लाकर चित्त को स्थिर करना और निरन्तर इसी का अभ्यास करना चाहिये। यह देखना अप्रमत्त दशा में होता है। इसलिये केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त ऐसा अभ्यास करना चाहिये। तीसरा प्रकार यह है कि शुक्लध्यान के द्वारा घातिचतुष्क का क्षय कर जब केवलज्ञान प्राप्त होता है तब जिस आत्मा का पहले परोक्षरूप से भान होता था वही अब साक्षात् भासमान होने लगता है, यही पूर्णज्ञान का देखना है और जो ज्ञान है वही आत्मा है। अभेदविवक्षा में आत्मा कहो या ज्ञान कहो, एक ही है, कोई विरोध नहीं है।।३९०।४०४।। अब यही भाव कलशा में व्यक्त करते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं बिभ्रत्पृथग्वस्तुता
मादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितम्। मध्याद्यन्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रभाभासुरः
शुद्धज्ञानघनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति।।२३४।। अर्थ- जो अन्य पदार्थों से भिन्न है, आत्मस्वरूप में निश्चल है, पृथक् वस्तुपन को धारण कर रहा है, ग्रहण और त्याग के विकल्प से शून्य है तथा निर्मल है,
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