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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
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ऐसा यह ज्ञान उस तरह अवस्थित होता है जिस तरह कि मध्य, आदि और अन्त के विभाग से रहित स्वाभाविक सातिशय प्रभाव से देदीप्यमान और शुद्ध ज्ञान से सान्द्र इसकी महिमा नित्य उदित रहती है।
भावार्थ- अन्त में आत्मा जिस ज्ञानरूप होकर अवस्थित रहता है वह कैसा है? इसकी चर्चा इस काव्य में की गई है—वह ज्ञान, शास्त्र, रूप, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श तथा धर्मास्तिकाय आदि अन्य पदार्थों से भिन्न है, आत्मस्वरूप में नियत है अर्थात् योग और कषाय के कारण पहले जो उसकी चञ्चलता रहती थी वह समाप्त हो जाती है, वह पृथग् वस्तुता को धारण करता है अर्थात् ज्ञेयों से मिश्रित होने पर भी उनसे पृथक् अपना अस्तित्व रखता है। पहले मोह के उदय से ज्ञान में ग्रहण
और त्याग के विकल्प उठा करते थे, परन्तु अब मोह का अभाव हो जाने पर उसमें वे विकल्प अस्तमित हो जाते हैं। पहले रागादिक के संपर्क से ज्ञान में जो मलिनता थी अथवा क्षायोपशमिक अवस्था के कारण पूर्ण स्पष्टता नहीं थी, अब उसका अभाव हो जाने से वह ज्ञान पूर्ण निर्मल हो जाता है। पहले यह ज्ञान बाह्य साधन सापेक्ष होने के कारण उपजता और तिरोहित होता रहता था, इसलिये आदि मध्य और अन्त से सहित था। परन्तु अब बाह्य साधन से निरपेक्ष होने के कारण सर्वदा प्रकाशमान रहता है, इसलिये उसमें आदि, मध्य और अन्त का कुछ भी विकल्प नहीं रहता। रागादिक का सर्वथा क्षय हो जाने से उसकी शुद्धता कभी नष्ट होनेवाली नहीं, इसलिये वह शुद्ध ज्ञान से घन है तथा पहले ज्ञानावरण के क्षयोपशम के अधीन रहने से मेघमाला के मध्य स्थित विद्युत् के समान प्रकट होता और फिर तिरोहित हो जाता था। परन्तु अब ज्ञानावरण का सर्वथा क्षय हो जाने से नित्य उदयरूप रहता है अर्थात् उसका अन्त कभी नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि आत्मा केवलज्ञान रूप से अवस्थित रहता है।।२३४।। अब आत्म की कृतकृत्यदशा का वर्णन करते हुए कलशा कहते हैं
. उपजातिछन्द उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्
तथात्तमादेयमशेषतस्तत्। यदात्मनः संहतसर्वशक्तेः
पूर्णस्य संधारणमात्मनीह।।२३५।। अर्थ- जिसने रागादि विभावरूप परिणमन करने वाली सर्व शक्तियों का संकोच कर लिया है तथा केवलज्ञानादि गुणों के पूर्ण हो जाने से जो पूर्णता को
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