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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
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है। इस प्रकार समस्त परद्रव्यों से भिन्नपन तथा समस्त दर्शन ज्ञानादि जीव स्वभाव से अभिन्नपन के कारण जो अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोषों का परिहार कर रहा है, तथा अनादि विभ्रम जिसका मूलकारण है ऐसे पुण्य-पापरूप परसमय का त्याग कर जो स्वयमेव प्रव्रज्या को धारण करता हुआ दर्शनज्ञान चारित्र में स्थिर होने रूप स्वसमय को प्राप्त हआ है, जिसने मोक्षमार्ग को अपने आप में परिणत किया है, सम्पूर्ण निज्ञानघनभाव को जिसने प्राप्त किया है, जो ग्रहण और त्याग के विकल्प से शून्य है तथा साक्षात् समयसारभूत हैं, ऐसा परमार्थ रूप एक शुद्ध ज्ञान ही स्थित रह जाता है, ऐसा अनुभव करना चाहिये।
भावार्थ- यहाँ परद्रव्यों से भिन्न और अपने स्वरूप से अभिन्न आत्मा का स्वभाव ज्ञान दिखाया है। इससे न तो अतिव्याप्ति है और न सव्याप्ति है क्योंकि आत्मा का लक्षण उपयोग है, उपयोग ज्ञानदर्शनस्वरूप ही है, यह अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता, इससे अतिव्याप्ति नहीं, है और आत्मा की सर्व अवस्था में पाया जाता है, इससे अव्याप्ति भी नहीं है। यहाँ पर ज्ञान कहने से आत्मा ही जानना चाहिये क्योंकि अभेददृष्टि से गुणगुणी में भिन्नदेशता नहीं होती। यहाँ पर ज्ञान को ही मुख्य कहा है, उसका यह तात्पर्य है कि आत्मा अनन्तधर्मात्मक है, उनमें कोई धर्म तो हमारे अनुभव में ही नहीं आते, अत: उनके द्वारा आत्मा को जानना असम्भव है और कोई अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्वादि अनुभवगोचर भी हैं। परन्तु वे अजीवादि द्रव्य साधारणहोने से अतिव्याप्तिरूप हैं उनसे भी आत्मा का परिचय होना कठिन है। कोई भाव परद्रव्य के निमित्त से उत्पन्न होते हैं, जैसे रागादिक। ये भाव अव्याप्तरूप हैं, अत: उनसे भी आत्मा का ज्ञान होना असंभव है तथा कोई भाव कर्म के क्षय से होते हैं, जैसे केवलज्ञानादि। यह भाव यद्यपि असाधारण हैं तथापि सर्व अवस्थाओं में न रहने से अव्याप्त हैं। अतएव केवलज्ञानादि पर्यायों के द्वारा आत्मा का निर्णय करना अशक्य है। इसी तरह क्षायोपशमिक भाव भी आत्मा के निर्णायक नहीं हैं क्योंकि ये भाव भी आत्मा की सर्व अवस्थाओं में नहीं रहते। अत: सामान्यरूप से उपयोग ही आत्मा का लक्षण है, यही सब अवस्थाओं में व्याप्त होकर रहता है, अत: यही लक्षण आत्मा का इतर पदार्थों से भेद कराता है क्योंकि यह आत्मा की सब अवस्थाओं में व्यापक है। इस ज्ञान में अनादि काल से मिथ्यात्व तथा रागादिक परिणाम के योग से शुभाशुभ प्रवृत्ति का सद्भाव चला आ रहा है, उसे निजस्वरूप की श्रद्धा के बल से दूर कर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय स्व-समयरूप जो मोक्षमार्ग है उसमें अपनी आत्मा को लीन कर जब ज्ञान की शुद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है तब आत्मा कृतकृत्य हो जाता है, त्याग और ग्रहण का वहाँ विचार ही नहीं होता, ऐसा साक्षात् समयसाररूप
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