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________________ ३९२ समयसार आकाश भी ज्ञान नहीं है क्योंकि आकाश कुछ भी नहीं जानता है, इसीसे ज्ञान अन्य है और आकाश अन्य है, ऐसा जिनेन्द्र जानते हैं। अध्यवसान ज्ञान नहीं है क्योंकि अध्यवसान कुछ भी नहीं जानता है, इसीसे ज्ञान अन्य है और अध्यवसान अन्य है, ऐसा सर्वज्ञ परमेष्ठी जानते हैं। यत: जीव नित्य जानता है ही इसलिये वह ज्ञायक तथा ज्ञानी है। ज्ञान ज्ञायक से अभिन्न है, ऐसा जानना चाहिये। और ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान ही संयम है, ज्ञान ही अङ्गपूर्वगतसूत्र है, तथा ज्ञान, धर्म, अधर्म और प्रव्रज्या है ऐसा पण्डित लोग स्वीकार करते हैं। विशेषार्थ- द्रव्यश्रुत ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, इसलिये द्रव्यश्रुत और ज्ञान में भिन्नता है। शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, इसीसे शब्द और ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं। रूप ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, अत: ज्ञान और रूप में परस्पर भिन्नता है। वर्ण ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, अत: ज्ञान और वर्ण भिन्न-भिन्न है। गन्ध ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, अत: ज्ञान और गन्ध में भेद है। रस ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, इसलिये ज्ञान और रस में भिन्नता है। स्पर्श ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, इसीसे ज्ञान और स्पर्श भिन्न-भिन्न हैं। कर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, इसीसे ज्ञान और कर्म में व्यतिरेक है। धर्मद्रव्य भी ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, इसलिये ज्ञान और धर्मद्रव्य में भिन्नता है। अधर्मद्रव्य ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, इसलिये ज्ञान और अधर्मद्रव्य में पृथक्पन है। काल ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है इससे ज्ञान और काल भिन्न-भिन्न हैं। आकाश ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है. इसलिये ज्ञान और आकाश पृथक्-पृथक् हैं। अध्यवसानभाव ज्ञान नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, इससे ज्ञान और अध्यवसानभाव भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार ज्ञान का समस्त परद्रव्यों के साथ निश्चय से सिद्ध किया हुआ भेद देखने योग्य है। इस प्रकार शास्त्र आदि के साथ ज्ञान की भिन्नता दरशा कर अब जीव के साथ उसकी अभिन्नता दिखाते हैं केवल जीव ही एक ज्ञान है क्योंकि वह चेतन है इसलिये ज्ञान और जीव में अभेद है। जीव स्वयं ज्ञानरूप है इसलिये ज्ञान और जीव में कोई भेद है, ऐसी शङ्का नहीं करना चाहिये क्योंकि उन दोनों में गुणगुणी का भेद होने पर भी नित्य तादाम्य रहता है। ऐसा होने पर ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान ही संयम है, ज्ञान ही अंगपूर्वरूप सूत्र है, ज्ञान ही धर्म-अधर्म है, और ज्ञान ही प्रवज्या है। इस तरह ज्ञान का जीवपर्यायों के साथ निश्चय से सिद्ध किया हुआ अभेद द्रष्टव्य है-देखने योग्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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