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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार से आकांक्षा प्रकट करते हैं कि संसार के प्राणी कर्म और कर्मफल से अत्यन्त विरक्त हों, अज्ञानचेतना को समूल नष्ट करें और आत्मीय रस से युक्त स्वभाव को पूर्णरूप से प्राप्त कर अपनी ज्ञानचेतना को बड़े उल्लास के साथ प्रकट करें और उसके फलस्वरूप लोकोत्तर शान्त रस का सदाकाल पान करें।।२३२।।
अब आगे एक निराकुल ज्ञान ही शेष रहता है, यह दिखाने के लिये कलशा कहते हैं
वंशस्थछन्द इतः पदार्थप्रथनावगुण्ठनाद् __विनाकृतेरेकमनाकुलं ज्वलत्। समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयाद्
विवेचितं ज्ञानमिहावतिष्ठते ।।२३३।। अर्थ- अब इसके आगे पदार्थ समूह के आलम्बन से होनेवाली आकृति के बिना जो एकरूपता को प्राप्त है, आकुलता रहित है, देदीप्यमान है और समस्त वस्तुओं के भिन्नत्व के निश्चय से जो पृथक् किया गया है ऐसा ज्ञान ही यहाँ अवस्थित रहता है।
भावार्थ- 'यह घटज्ञान है' 'यह पटज्ञान है' इस तरह पदार्थसमूह के आलम्बन से जो ज्ञान पहले नानाज्ञेयों के आकार होने से नाना आकृतियों को धारण करता हुआ अनेकरूप अनुभव में आता था, अब अज्ञानचेतना के नष्ट हो जाने के अनन्तर वह ज्ञान, ज्ञेय के आकार का विकल्प हट जाने से एकरूप हो जाता है, पहले जो ज्ञान मोहविपाक से जायमान रागादि विकारों से संपृक्त होने के कारण आकुलता का उत्पादक था, पर अब वह मोहजन्य विकारों का संपर्क छूट जाने से आकुलता से रहित हो जाता है। पहले जो ज्ञान क्षायोपशमिक अवस्था में ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उदयानुसार उदयास्त को प्राप्त होता था-हीनाधिक अवस्था को प्राप्त होता था, परन्तु अब वह ज्ञानावरण का क्षय हो जाने से सदा दैदीप्यमान रहता है। पहले जो ज्ञान ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध के कारण ज्ञेयरूपता को प्राप्त था, पर अब सब पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं, ऐसा निश्चय हो जाने के कारण सबसे पृथक् अनुभव में आता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानचेतना के फलस्वरूप अन्त में ऐसा ज्ञान ही अवस्थित रहता है जिससे अन्य ओर से ज्ञानी का उपयोग हट जाता है।।२३३।।
आगे शास्त्र आदि से ज्ञान भिन्न है, यह वर्णन करने के लिये गाथाएँ कहते हैं
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