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________________ ३८८ समयसार आपातकालरमणीयमुदर्करम्यं निष्कर्मशर्ममयमेति दशान्तरं सः।।२३१।। अर्थ- जो निश्चय से आत्मस्वरूप में तृप्त होता हुआ पूर्वकाल के अज्ञानमय भावों से किये हुए कर्मरूपी विषवृक्षों के फलों को नहीं भोगता है अर्थात् उन फलों का स्वामी नहीं होता है वह तत्काल में रमणीय और भविष्यत्काल में रमणीय, कर्मों से रहित स्वाधीन सुखरूप अन्य अवस्था को जो आज तक संसार में प्राप्त नहीं हुई, ऐसी मोक्ष अवस्था को प्राप्त होता है। भावार्थ- ज्ञानी मनुष्य अपने चैतन्यस्वरूप में ही संतुष्ट रहता है, इसलिये पूर्व अवस्था में अज्ञानमय भावों से बाँधे हुए कर्मों का जो उसे पुल प्राप्त होता है उससे वह पूर्ण उदासीन रहता है, उस फल के प्रति उसके हृदय में कुछ भी स्वामित्व नहीं रहता है। इस स्वरूप संतोष का उसे फल यह प्राप्त होता है कि वह कर्म से रहित स्वाधीन सुख से तन्मय ऐसी मुक्त अवस्था को प्राप्त होता है, जो कि तत्काल में रमणीय है और आगामी अनन्तकाल में भी रमणीय ही रहेगी।।२३१।। अब ज्ञानीजन अज्ञानचेतना को नष्ट कर ज्ञान चेतना को पूर्ण करते हुए सदा शान्त रस का पान करें, ऐसी भावना आचार्य प्रकट करते हैं स्रग्धराछन्द अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतनायाः। पूर्णं कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतनां स्वां ___ सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमित: सर्वकालं पिबन्तुः।।२३२।। अर्थ- ज्ञानीजन कर्म और उसके फल से निरन्तर अत्यन्त विरक्ति की भावना को पाकर, सम्पूर्ण अज्ञानचेतना का स्पष्ट ही नाश कर, निज रस को प्राप्त स्वभाव को पूर्ण कर स्वकीय ज्ञान चेतना को बड़े आनन्द के साथ नाचते हुए इस समय से लेकर आगे निरन्तर प्रशमरस का पान करें। भावार्थ- अज्ञानचेतना और ज्ञान चेतना के भेद से चेतना दो प्रकार की है। उसमें अज्ञानचेतना के कर्मचेतना और कर्मफलचेतना ऐसे दो भेद हैं। अज्ञानी जीव स्वरूप से च्युत हो अनादिकाल से कर्मचेतना और कर्मफलचेतना की ही भावना करते हुए निरन्तर अशान्ति का अनुभव करते आ रहे हैं। ज्ञानचेतना की ओर उनका किञ्चिन्मात्र भी लक्ष्य नहीं जाता। इसीलिये परमदयालु अमृतचन्द्र स्वामी करुणाभाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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