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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३८१ अब ज्ञानी जीव की भावना प्रकट करने के लिये कलशा कहते हैं उपजातिछन्द समस्तमित्येकमपास्य कर्म त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बी। विलीनमोहो रहितं विकारै __श्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे।।२२८।। अर्थ- इस प्रकार तीन काल सम्बन्धी समस्त कर्मों का त्यागकर मैं शुद्धनय का अवलम्बी होता हआ मोहरहित हो विकारों से रहित चैतन्यमात्र आत्मा का अवलम्बन लेता हूँ। भावार्थ- प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान के द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्यकाल सम्बन्धी समस्त कर्मों के त्याग से अर्थात् उनके प्रति कर्तृत्व का भाव छोड़ने से जिसका समस्त मोह नष्ट हो गया है ऐसा शुद्धनय का अवलम्बन करने वाला जीवं विचार करता है कि मेरी आत्मा तो समस्त विकारों से रहित चैतन्यमात्र स्वरूप का धारक है, वही मेरा स्वीयद्रव्य है, उसीमें मुझे लीन होना चाहिये, ऐसा विचार कर वह मात्र ज्ञान चेतना का आलम्बन लेकर निरन्तर आत्मस्वरूप में लीन रहता है।।२२८।। अब समस्त कर्मफल के त्याग की भावना को प्रकट करते हैं आर्याछन्द विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमन्तरेणैव। संचेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानम्।।२२९।। अर्थ- कर्मफल चेतना का त्यागी ज्ञानी जीव विचार करता है कि कर्मरूपी विषवृक्ष के फल मेरे भोगे बिना ही खिर जावें, मैं तो चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही निश्चल रूप से अनुभव करता हूँ। भावार्थ- मैं कर्मफलों को केवल जानने-देखनेवाला हूँ, भोगनेवाला नहीं हूँ, इसलिये वर्तमान में जो कर्म अपना फल दे रहे हैं उनके प्रति मरो कोई ममत्वभाव नहीं है। फल देते हुए भी वे मेरे लिये फल न देते हुए के समान है। मेरा स्वकीय द्रव्य तो चैतन्यलक्षणवाला आत्मा है अत: उसी का निरन्तर चिन्तन करता हूँ।।२२९।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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