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________________ ३८० समयसार को न कराऊँगा न करते हुए अन्य को अनुमति दूँगा वचन से २५, मैं कर्म को न करूँगा न कराऊँगा काय से २६, मैं कर्म को न करते हुए अन्य को भी अनुमति दूंगा काय से २७, मैं कर्म को न कराऊँगा न करते हुए अन्य को अनुमति दूंगा काय से २८, मैं कर्म को न करूँगा मन से, वचन से, काय से २९, मैं कर्म को न कराऊँगा मन से, वचन से, काय से ३०, मैं करते हुए अन्य को अनुमति नहीं दूँगा मन से, वचन से, काय से ३१, मैं कर्म को न करूँगा मन से, वचन से ३२, मैं कर्म को न कराऊँगा मन से, वचन से ३३, मैं करते हुए अन्य को भी अनुमति नहीं दूंगा मन से, वचन से ३४, मैं कर्म को न कराऊँगा मन से, काय से ३५, मैं कर्म को न कराऊँगा मन से, काय से, ३६, मैं करते हुए अन्य को अनुमति नहीं दूंगा मन से, काय से ३७, मैं कर्म को न करूँगा वचन से, काय से ३८, मैं कर्म को नहीं कराऊँगा वचन से, काय से ३९, मैं करते हुए अन्य को अनुमति नहीं दूंगा वचन से, काय से ४०, मैं कर्म को नहीं करूँगा मन से ४१, मैं कर्म को नहीं कराऊँगा मन से ४२, मैं करते हुए अन्य को भी अनुमति नहीं दूंगा मन से ४३, मैं कर्म को नहीं करूँगा वचन से ४४, मैं कर्म को नहीं कराऊँगा वचन से ४५, मैं करते हुए अन्य को भी अनुमति नहीं दूंगा वचन से ४६, मैं कर्म को न करूँगा काय से ४७, मैं कर्म को न कराऊँगा काय से ४८, मैं करते हुए अन्य को अनुमति नहीं दूंगा काय से।।४९।। आर्याछन्द प्रत्याख्याय भविष्यत् कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।।२२७।। अर्थ- भविष्य काल के समस्त कर्मों का प्रत्याख्यान कर जिसका मोह नष्ट हो चुका है ऐसा मैं कर्मरहित चैतन्य स्वरूप आत्मा में अपने आप निरन्तर वर्त रहा भावार्थ- ज्ञानी जीव ऐसा विचार करता है कि कर्मचेतना मेरा स्वरूप नहीं है, इसलिये जिस प्रकार अतीतकाल और वर्तमानकाल सम्बन्धी कर्मों का कर्तृत्व मेरे ऊपर नहीं है उसी प्रकार भविष्यकाल सम्बन्धी कर्मों का कर्तृत्व भी मुझ पर नहीं है। मैं कृत, कारित और अनुमोदना और मन, वचन, काय से भविष्यत्काल सम्बन्धी समस्त कर्मों का प्रत्याख्यान कर कर्मरहित तथा चैतन्यस्वरूप अपने आत्मा में ही अपने आपके पुरुषार्थ से निरन्तर लीन रहता हूँ।।२२७।। इस तरह प्रत्याख्यान कल्प समाप्त हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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