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________________ ३७२ समयसार विशेषार्थ- निश्चय से जो चेतयिता (आत्मा) पुद्गलकर्म के विपाक से होनेवाले भावों से स्वीय आत्मा को निवृत्त करता है वह उन भावों के कारण भूत पूर्वकर्मों का प्रतिक्रमण करता हुआ स्वयं ही प्रतिक्रमण रूप होता है। वही आत्मा उन भावों के कार्यभूत अर्थात् उन भावों से बँधनेवाले उत्तरकर्म को त्यागता हुआ प्रत्याख्यान रूप होता है और वही आत्मा वर्तमान कर्मविपाक को आत्मा से अत्यन्त भेद रूप जानता हुआ आलोचना रूप होता है। इस तरह यह आत्मा नित्य ही प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना करता हुआ, पूर्वकर्म के कार्य और उत्तरकर्म के कारणरूप भावों से अत्यन्त निवृत्त होता हुआ और वर्तमान कर्मविपाक को आत्मा से अत्यन्त भिन्न जानता हुआ स्वकीय ज्ञानस्वभाव से निरन्तर आचरण करने से चारित्र होता है। और चारित्ररूप होता हुआ ज्ञानमात्र जो स्वीय स्वरूप है उसका अनुभवन करने से स्वयमेव ज्ञानचेतना हो जाती है। भावार्थ- यहाँ पर प्रधानता से निश्चय चारित्र का कथन है। जहाँ पर चारित्र का वर्णन होता है वहाँ पर प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना का वर्णन होता है। परन्तु यह सब प्रक्रिया मोहोदय में होती है। जैसे अपराध जो होता है वह मोह के तीव्रोदय में होता है और उसका जो प्रतिक्रमणादि होता है वह मोह के मन्द उदय में होता है। जिस प्रकार लोक में कोई व्याख्यान देने का उद्यम करता है और व्याख्यान समाप्ति के अनन्तर उपस्थित सभासदों से नम्र शब्दों में यह निवेदन करता है कि यदि हमसे अज्ञान और प्रमाद के कारण किसी प्रकार का अनुचित भाषण हुआ हो तो उसे आप महानुभाव क्षमा करें। उसी प्रकार मोही आत्मा से अतीत में मोह के वश जो अपराध हुए हैं उनके दूर करने के लिये वह पश्चात्ताप करता हुआ अपने आप को धिक्कारता है। अब आगामी काल में ऐसे अपराध के कारण जो भाव हैं उन्हें नहीं करूँगा अर्थात् ऐसे भावों से अपनी आत्मा का निवारण करता है। इसी का नाम प्रत्याख्यान है तथा जो कर्मोदय वर्तमान में आ रहा है उसे साम्यभाव से सहन करता हुआ भोगता है और यह विचार करता है कि यह कर्मोदय हमारे ज्ञानस्वभाव से अत्यन्त भिन्न है, इसीका नाम आलोचना है। निश्चयनय से विचार किया जाय तो यहाँ पर आत्मा ही प्रतिक्रमण है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही आलोचना है और आत्मा ही परमार्थ से चारित्र है। जब आत्मा ही स्वयं चारित्ररूप हो जाता है तब उसका ज्ञानमात्र जो स्वकीय स्वरूप है उसी का अनुभव रह जाता है, इसलिये कर्मचेतना और कर्मफल चेतना से निवृत्ति होकर मात्र ज्ञानचेतना रह जाती है।।३८३।३८६।। अब ज्ञानचेतना और अज्ञानचेतना (कर्मचेतना और कर्मफल चेतना) का फल दिखाते हुए कलशा कहते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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