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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
उपजातिछन्द
ज्ञानस्य संचेतनयैव नित्यं
प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम् ।
अज्ञानसंचेतनया तु धावन्
बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बन्धः ।। २२३ ।।
अर्थ- ज्ञान के संचेतन से ही अत्यन्त शुद्ध ज्ञान प्रकाशित होता है और अज्ञान के संचेतन से बन्ध दौड़ता हुआ ज्ञान की शुद्धि को रोक लेता है ।
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भावार्थ- पदार्थों का जानना ही मेरा स्वभाव है, उनका कर्ता या भोक्तापन मेरा स्वभाव नहीं है। इस प्रकार निरन्तर ज्ञानस्वभाव का चिन्तन करने से ज्ञान शुद्ध हो जाता है अर्थात् उसमें मोहोदय से होनेवाले पर के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का जो भ्रम (विकारी अंश) था वह दूर हो जाता है। तथा इसके विपरीत अज्ञान का चिन्तन करने से अर्थात् ज्ञानस्वभाव से भिन्न जो कर्तृत्व ( कर्मचेतना) और भोक्तृत्व (कर्मफलचेतना) भाव है उसका विचार करने से ज्ञान की शुद्धि रुक जाती है और कर्मों का बन्ध होने लगता है ।।२२३ ।।
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अब अज्ञानचेतना बंध का कारण है, यह गाथाओं में स्पष्ट करते हैंवेदंतो कम्मफलं अप्पाणं कुणइ जो दु कम्मफलं । सो तं पुणो वि बंधइ वीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ।। ३८७ ।। वेदंतो कम्मफलं मए कयं मुणइ जो दु कम्मफलं । सो तं पुणो वि बंधइ वीयं दुक्खस्स अट्ठविहं । । ३८८ ।। वेदतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा । सो तं पुणो वि बंधइ वीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ।। ३८९ ।। (त्रिकलम्)
अर्थ- जो आत्मा कर्मफल का अनुभव करता हुआ कर्मफल को अपनाता है अर्थात् कर्मफल से भिन्न आत्मा को नहीं मानता वह आत्मा दुःखों के बीजस्वरूप आठ कर्मों का फिर भी बन्ध करता है ।
जो आत्मा कर्मफल का वेदन करता हुआ यह कर्मफल मेरे द्वारा किया हुआ है, ऐसा मानता है वह दुःख के बीजस्वरूप आठ प्रकार के कर्मों का फिर भी बन्ध करता है।
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