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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३७१ एक चैतन्य का चमत्कार ही विद्यमान है। उसी से जो तन्मय है तथा जिसने स्वकीय केवल ज्ञानरूप परिणति से समस्त भुवन को व्याप्त किया है अर्थात् लोकालोक को अपना विषय बना लिया है। तात्पर्य यह है कि जिनका रागद्वेष चला जाता है, तथा जो अतीत, अनागत और वर्तमान कर्मोदय से भिन्न आत्मा का अनुभव करते हैं उन्हीं महापुरुषों के चारित्र के वैभव का उदय होता है, जिसके बल से वे कर्मचेतना और कर्मफल चेतना से भिन्न ज्ञानचेतना का अनुभवन करते हैं तथा उस शुद्ध चेतना की ऐसी महती शक्ति है कि जिसमें अखिल लोक एक समय में प्रतिभासित होने लगाता है ।।२२२।। अब प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा आलोचना का स्वरूप बताते हैंकम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तए अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं । । ३८३ ।। कम्मं जं सुहमसुहं ज य भाव वज्झइ भविस्सं । तत्तोणियत्तए जो सो पच्चक्खाणं हवइ चेया । । ३८४ । । जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडिय अणेयवित्थरविसेसं । तं दोसं जो चेयइ सो खलु आलोयणं चेया । । ३८५ ।। णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वइ णिच्चं य पडिक्कमदि जो । णिच्चं आलोचेयइ सो हु चरितं हवइ चेया ।। ३८६ ।। (चतुष्कम्) अर्थ- पूर्वकाल में किये हुए अनेक विस्तार विशेष से युक्त जो शुभ - अशुभ कर्म हैं उनसे अपने आप को जो निवृत्त करता है वह प्रतिक्रमण है। जिस भाव के रहते हुए भविष्यकाल में जो शुभ-अशुभ कर्मबन्धको प्राप्त होनेवाले हैं उस भाव से जो चेतयिता निवृत्त होता है वह प्रत्याख्यान हैं। और जो वर्तमानकाल में अनेक प्रकार के विस्तार विशेष से युक्त शुभ-अशुभ कर्म उदय में आया है उसके दोष का जो चेतयिता चिन्तन करता है वह आलोचना है। इस पद्धति से जो चेतयिता नित्य ही प्रत्याख्यान करता है, नित्य ही प्रतिक्रमण करता है और नित्य ही आलोचना करता है निश्चय से वही चारित्र है अर्थात् वही चारित्र गुण का धारक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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