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________________ ३७० समयसार से प्रकाशित ही करता है, उस पदार्थ के निमित्त से स्वयं हर्ष-विषाद का अनुभव नहीं करता। उसी प्रकार ज्ञानी जीव अच्छे या बुरे पदार्थों को जानता मात्र है, उनके निमित्त से हर्ष-विषाद का अनुभव नहीं करता। इस तहर बाह्यपदार्थ ज्ञानी जीव में कुछ भी विकार उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है। फिर भी वस्तु स्वभाव के यथार्थ विचार से रहित ये अज्ञानी प्राणी शुभ-अशुभ शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श आदि का निमित्त पाकर रागद्वेष युक्त होते हैं तथा अपनी सहज जो उदासीनता है उसे छोड़ देते हैं यह आश्चर्य की बात है ।।२२१।। __अब राग-द्वेष से रहित जीव ही ज्ञान चेतना को प्राप्त होते हैं, यह कहते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्वोदयात्। दूरारूढचरित्रवैभवबलाच्चञ्चच्चिदर्चिर्मयों विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् ।।२२२ ।। अर्थ- जो रागद्वेषरूप विभाव से रहित तेज के धारक हैं, जो नित्य ही स्वभाव का स्पर्श करते हैं, जो अतीत और अनागत सम्बन्धी समस्त कर्मों से रहित हैं तथा जो वर्तमानकाल सम्बन्धी कर्मोदय से भिन्न हैं ऐसे ज्ञानी जीव, अत्यन्त गाढ़रूप से धारण किये हुए चारित्र के वैभव के बल से उस ज्ञानचेतना को प्राप्त होते हैं, जो चमकती हुई चैतन्यज्योति से तन्मय है तथा जिसने स्वकीय ज्ञानरूप रस से तीनों लोकों को सींचा है। भावार्थ- जिनका आत्मतेज रागद्वेष से रहित है अर्थात् अविरतसम्यग्दृष्टि आदि की अवस्था में अप्रत्याख्यानावरणादि प्रकृतियों के उदय से जायमान रागादिक के रहते हुए भी जो अपने आत्मतेज को उससे रहित अनुभव करते हैं और आगे चलकर मोहकर्म का अभाव होने से परामर्थ रुप से जिनका आत्मतेज रागद्वेष से रहित हो गया तथा रागद्वेष से रहित होने के लिये जो निरन्तर स्वकीय ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव का स्पर्श करते हैं अर्थात् सदा ऐसी भावना रखते हैं कि मेरा स्वभाव पदार्थों को जानना-देखना मात्र है रागी-द्वेषी होना नहीं। जो अतीत और अनागत सम्बन्धी कर्म से रहितहैं अर्थात् कर्मचेतना से मुक्त हैं और वर्तमान में उदय को प्राप्त कर्मफल से भिन्न हैं अर्थात् कर्मफलचेतना से रहित हैं ऐसे जीव अतिशय दृढ़ता के साथ धारण किये हुए रागद्वेष की निवृत्तिरूप चारित्र के विभव की सामर्थ्य से अर्थात् यथाख्यातचारित्र के बल से ज्ञान की उस समीचीन चेतना को प्राप्त होते हैं जिसमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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