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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
दीपक की किञ्चिन्मात्र भी विक्रिया (विकार) करने के लिए समर्थ नहीं हैं । उसी प्रकार बाह्वा पदार्थ जो शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, गुण और द्रव्य हैं वे यज्ञदत्त को देवदत्त के समान हाथ में पकड़कर मुझे सुनो, मुझे देखो, मुझे सूँघो, मुझे चखो, मुझे स्पर्श करो और मुझे जानो, इस तरह अपने ज्ञान के लिए आत्मा को प्रेरित नहीं करते हैं, किन्तु वस्तुस्वभाव पर के द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता और वस्तु स्वभाव के द्वारा पर उत्पन्न नहीं किया जा सकता, इसलिये जिस प्रकार आत्मा उन शब्दादिक के असन्निधान में उन्हें जानता है उसी प्रकार उनके सन्निधान में भी स्वरूप से ही उन्हें जानता है। वस्तु स्वभाव से ही विचित्र परिणति को प्राप्त होते हुए सुन्दर या असुन्दर जो शब्दादिक बाह्यपदार्थ हैं वे स्वरूप से ही जानने वाले आत्मा में किञ्चिन्मात्र भी विक्रिय (विकार) उत्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं हो सकते। इस तरह यह आत्मा दीपक के समान परपदार्थ के प्रति नित्य ही उदासीन रहता है। यह वस्तु की स्थिति है तो भी जो रागद्वेष उत्पन्न होते हैं वह अज्ञान है।
भावार्थ- शुभ-अशुभ शब्द आदि का परिणमन उनके स्वाधीन है, वे आत्मा में रागद्वेष उत्पन्न करने के लिये समर्थ नहीं हैं । फिर भी आत्मा में जो रागद्वेष होता है वह उसका अज्ञान है ।।३७३-३८२।।
आगे यही भाव कलशा में कहते हैं
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शार्दूलविक्रीडित छन्द पूर्णकाच्युतशुद्धबोधमहिमा बोद्धा न बोध्यादयं
यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव । तद्वस्तुस्थितिबोधबन्ध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो
रागद्वेषमयीभवन्ति सहजां मुञ्चन्त्युदासीनताम् ।। २२१।।
अर्थ- जिस प्रकार प्रकाशित करने योग्य घटपटादि पदार्थों से दीपक कुछ भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार पूर्ण, एक, अच्युत तथा शुद्ध ज्ञान की महिमा से युक्त यह बोद्धा अर्थात् आत्मा, ज्ञान के विषयभूत शब्दादि पदार्थों
कुछ भी विक्रिया को प्राप्त नहीं हो सकता है । इसलिये वस्तु स्थिति के ज्ञान से शून्य बुद्धिवाले ये अज्ञानी जीव रागद्वेषरूप क्यों हो रहे हैं तथा अपनी सहज उदासीनता – वीतराग परिणतिको क्यों छोड़ रहे हैं ?
भावार्थ- जिस प्रकार बाह्यपदार्थ दीपक में कुछ भी विकार करने में समर्थ नहीं हैं अर्थात् पदार्थ अच्छा या बुरा किसी प्रकार का रहे, दीपक उसे मध्य स्वभाव
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