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________________ ३६६ समयसार कारण इसका अज्ञान फैलता है, यह बात सबको विदित हो, अत: अज्ञान अस्त को प्राप्त हो जावे, क्योंकि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ। ____ भावार्थ- रागादिक की उत्पत्ति का उपादान कारण आत्मा स्वयं है, इसलिये परपदार्थ को क्या दोष दिया जाय? अज्ञानभाव के कारण आत्मा में रागादिकभाव उत्पन्न होते हैं। इसलिये आचार्य आकाङ्क्षा प्रकट करते हैं कि मेरा वह अज्ञानभाव नष्ट हो, क्योंकि मैं ज्ञानरूप हूँ। अज्ञानी जीव रागद्वेष की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही निमित्त मानकर उनके ऊपर क्रोध करता है। यह व्यर्थ है क्योंकि रागद्वेष का उपादान कारण अज्ञानी जीव स्वयं है। अत: उनके ऊपर क्रोध करना जलताड़न के सदृश व्यर्थ है। अपने अज्ञान भाव को त्यागो, आप से आप इनका विलय हो जावेगा।।२१९।। __ आगे रागादिक की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही निमित्त मानने का निषेध करते हैं रथोद्धताछन्द रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनी शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ।।२२०।। अर्थ- जो राग की उत्पत्ति में परद्रव्य का ही निमित्तपन मानते हैं वे मोहरूपी नदी को नहीं उतर सकते, क्योंकि शुद्धनय का विषयभूत जो आत्मा उसके बोध से शून्य होने के कारण वे अन्ध बुद्धिवाले हैं। भावार्थ- आत्मा के अज्ञानरूप रागादिक परिणाम मोहकर्म के उदय में होते हैं। जो केवल परद्रव्य की निमित्तता की मुख्यता से ही उनका अस्तित्व मानते हैं वे शुद्धवस्तु स्वरूप के ज्ञान से रहित अन्धे हैं तथा कभी भी मोहनदी के पार नहीं जा सकते ।।२२०॥ आगे शब्द, रस, गन्ध आदिक बाह्वा पदार्थ रागद्वेष के कारण नहीं हैं, यह दिखाते हैं जिंदियसंथुयवयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुयाणि। ताणि सुणिऊण रूसदि तूसदि य अहं पुणो भणिदो ॥३७३।। पोग्गलदव्वं सद्दत्तपरिणयं तस्स जइ गुणो अण्णो। तह्मा ण तुमं भणिओ किंचि वि किं रूससि अबुद्धो।।३७४।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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