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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३६७ असुहो सुहो व सद्दो ण तं भणइ सुणसु मं ति सो चेव। ण य एइ विणिग्गहिउं सोयविषयमागयं सह ॥३७५।। असुहं सुहं च रूवं ण तं भणइ पिच्छ मं ति सो चेव। ण य एइ विणिग्गहिउं चक्खुविसयमागयं रूवं ॥३७६।। असुहो सुहो व गंधो ण तं भणइ जिग्घ मं ति सो चेव। ण य एव विगिग्गहिउं घाणविसयमागयं गंधं ।।३७७।। असुहो सुहो व रसो ण तं भणइ रसय मं ति सो चेव। ण य एइ विणिग्गहिउं रसणविसयमागयं तु रसं॥३७८।। असुहो सुहो व फासो ण तं भणइ फुससु मं ति सो चेव। ण य एइ विणिग्गहिउं कायविसयमागयं फासं॥३७९।। असुहो सुहो व गुणो ण तं भणइ बुज्झ मं ति सो चेव। ण य एइ विणिग्गहिउं बुद्धिविसयमागयं तु गुणं ।।३८०॥ असुहं सुहं व दव्वं ण तं भणइ बुज्झ मं ति सो चेव। ण य एइ विणिग्गहिउं बुद्धिविसयमागयं दव्वं ।।३८१।। एयं तु जाणिऊण उवसमं णेव गच्छई मूढो। णिग्गहमणा परस्स य सयं च बुद्धिं सिवमपत्तो।।३८२॥ (दशकम्) अर्थ- अनेक प्रकार के जो निन्दा और स्तुति के वचन हैं। पुद्गलद्रव्य उन रूप परिणमता हैं। उन्हें सुनकर 'ये शब्द मुझसे कहे गये हैं ऐसा समझकर अज्ञानी जीव रुष्ट होता है तथा संतुष्ट होता है। अर्थात् निन्दा के वचन सुरकर रूष्ट होता है और स्तुति के वचन सुनकर संतुष्ट होता है। परन्तु यहाँ पुद्गलद्रव्य ही शब्दरूप परिणत हुआ है। यदि उसका गुण अन्य है अर्थात् तुझसे भिन्न है तो तुझसे कुछ भी नहीं कहा गया है। तूं अज्ञानी हुआ क्यों रूष्ट होता है? ____अशुभ और शुभ शब्द तुझसे नहीं कहता कि तूं मुझे सुन, और न श्रोत्रइन्द्रिय के विषय को प्राप्त हुए शब्द को ग्रहण करने के लिये आत्मा ही आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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