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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३६५ अन्य द्रव्य के स्वभाव से अन्य द्रव्य में परिणाम का उत्पाद नहीं देखा जाता। यदि ऐसा है तो यह निश्चित हो गया कि मिट्टी का घटाकार परिणमन कुम्भकार के स्वभाव से नहीं होता, किन्तु मिट्टी के स्वभाव से ही होता है क्योंकि द्रव्य में परिणाम का उत्पाद स्वकीय स्वभाव से ही देखा जाता है तथा ऐसा होने पर मिट्टी अपने स्वभाव का अतिक्रमण नहीं कर सकती। इसलिये घटका उत्पादक कुम्भकार नहीं है किन्तु मिट्टी ही कुम्भकार के स्वभाव का स्फर्श न करती हुई स्वकीय स्वभाव से घटरूप उत्पन्न होती है। ___ इसी प्रकार सभी द्रव्य स्वकीय परिणाम रूप पर्याय से उत्पन्न होते हैं। सो उस तरह उत्पन्न होते हुए वे द्रव्य क्या निमित्तभूत द्रव्यान्तर के स्वभाव से उत्पन्न होते हैं या स्वकीय स्वभाव से? यह आशङ्का होती है। यदि निमित्तभूत द्रव्यान्तर के स्वभाव से उत्पन्न होते हैं तो उनका वह परिणाम निमित्तभूत परद्रव्य के आकार होना चाहिये, परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि द्रव्यान्तर के स्वभाव से द्रव्य में परिणाम नहीं देखा जाता। यदि ऐसा है तो यह निश्चय हुआ कि सर्वद्रव्य निमित्तभूत परद्रव्य के स्वभाव से उत्पन्न नहीं होते, किन्तु स्वकीय स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं क्योंकि द्रव्य में जो परिणाम का उत्पाद है वह स्वकीय स्वभाव से ही देखा जाता है और ऐसा होने पर सर्वद्रव्य अपने स्वभाव का अतिक्रमण नहीं कर सकते, इसलिये निमित्तभूत अन्य द्रव्य उनके परिणाम के उत्पादक नहीं हैं किन्तु सर्वद्रव्य ही निमित्तभूत द्रव्यान्तर के स्वभाव का स्पर्श न करते हुए स्वकीय स्वभाव से अपने-अपने परिणाम रूप से उत्पन्न होते हैं। इसलिये हम परद्रव्य को जीव के रागादिक भावों का उत्पादक नहीं देखते हैं, जिसके लिये कुपित हों अर्थात् क्रोध प्रकट करें। यहाँ उपादानकारण की प्रधानता से कथन किया गया है, इसलिये निमित्तकारण का सर्वथा निषेध समझना चाहिये ।।३७२।। ____ अब कहते हैं कि रागादिक की उत्पत्ति में आत्मा ही अपराधी है अन्य द्रव्य नहीं मालिनीछन्द यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः ___ कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र। स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो । भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ।।२१९।। अर्थ- इस आत्मा में जो रागादिक की उत्पत्ति होती है उसमें परद्रव्य का किञ्चिनमात्र भी दूषण नहीं है। यह आत्मा स्वयं अपराधी होता है और अपराध के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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