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________________ ३६४ समयसार करे, क्योंकि राग-द्वेष के नष्ट हो चुकने पर ही पूर्ण तथा अविनाशी केवल ज्ञान रूपी ज्योति प्रकट हो सकती है ।।२१७।। अब राग-द्वेष का उत्पादक परद्रव्य नहीं है, यह भाव कलशा में दिखाते हैं शालिनीछन्द रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्ट्या नान्यद् द्रव्यं वीक्ष्यते किञ्चनापि। सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात् ।।२१८।। अर्थ- तत्त्वदृष्टि से देखने पर रागद्वेष को उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य कुछ भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि सब द्रव्यों की उत्पत्ति अपने ही निज स्वभाव से अपने ही भीतर प्रकट होती हुई अत्यन्त सुशोभित होती है। भावार्थ- यहाँ उपादानदृष्टि की प्रमुखता से कथन है, इसलिये रागद्वेष की उत्पत्ति बाह्व पदार्थों से न बताकर आत्मा के स्वस्वभाव से ही बतलाई है। इसलिये रागद्वेष को नष्ट करने के लिये अपने अज्ञानभाव को ही सर्वप्रथम नष्ट करना चाहिये।।२१८।। अब सर्व द्रव्य स्वभाव से ही उपजते हैं, यह कहते हैंअण्णदविएण अण्णदवियस्स ण कीरए गुणुप्पाओ। तह्मा उ सव्वदव्वा उप्पज्जंते सहावेण।।३७२।। अर्थ- अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुणों का उत्पाद नहीं होता, इसलिये सब द्रव्य स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं। विशेषार्थ- परद्रव्य जीव के रागादिकों को उत्पन्न कराता है, ऐसी आशङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि अन्य द्रव्य के अन्य द्रव्य सम्बन्धी गुणों के उत्पन्न करने की असमर्थता है। सभ द्रव्यों का अपने स्वभाव से ही उत्पाद होता है, इसी बात को दिखाते हैं जैसे मिट्टी का घड़ा बनता है। यहाँ घटरूप से उत्पन्न होती हुई मिट्टी क्या कुम्भकार के स्वभाव से घटरूप उत्पन्न होती है अथवा मिट्टी के स्वभाव से? यदि कुम्भकार के स्वभाव से घटरूप उत्पन्न होती है, ऐसा माना जावे तो घट बनाने के अहंकार से पूरित पुरुष अधिष्ठित तथा घट निर्माण में व्याप्त हाथों से युक्त पुरूष का जो शरीर है उसके आकार घट होना चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं होता, क्योंकि For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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