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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
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वे पुद्गलद्रव्य का घात होने पर भी नहीं पाते जाते और न दर्शन-ज्ञान-चारित्र का घात होने पर भी गद्गलद्रव्य घाता जाता है। इस तरह यह सिद्ध हुआ कि दर्शनज्ञान-चारित्र पुद्गलद्रव्य में नहीं हैं क्योंकि यदि ऐसा होता तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र का घात होने पर पुद्गलद्रव्य का घात और पुद्गलद्रव्य का घात होने पर दर्शनज्ञान-चारित्र का घात दुर्निवार होता, परन्तु ऐसा नहीं है। जिस कारण ऐसा है उस कारण जो जितने कुछ भी जीव के गुण हैं वे सभी परद्रव्यों में नहीं हैं, इस प्रकार हम सम्यक् देखते हैं। अन्यथा यहाँ पर भी जीव के गुणों का घात होने पर पुद्गलद्रव्य का घात और पुद्गलद्रव्य का घात होने पर जीव के गुणों का घात दुर्निवार हो जाता, पन्तु ऐसा नहीं है। यहाँ आशङ्का होती है कि यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टि के विषयों में राग किसी कारण से होता है? इसका उत्तर है कि न किसी कारण से । तब फिर राग की खान क्या है? अर्थात् राग की उत्पत्ति किससे होती है? इसका उत्तर यह है कि राग-द्वेष-मोह जीव के ही अज्ञानमय परिणाम हैं, इसलिये वे परद्रव्यादि विषयों में नहीं होते। अज्ञान का अभाव होने से सम्यग्दृष्टि जीव के रागादिक नहीं होते। इस प्रकार वे राग-द्वेष-मोह विषयों में न होते हुए सम्यग्दृष्टि के नहीं होते, यह नियम है ।।३६६-३७१।। अब यही भाव कलशा में दिखाते हैं
मन्दाक्रान्ताछन्द रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्
तौ वस्तुत्त्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किञ्चित्। सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्वदृष्ट्या स्फुटन्तौ
ज्ञानज्योतिर्व्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः ।। २१७।। अर्थ- निश्चय से इस आत्मा में अज्ञान भाव के कारण ज्ञान ही राग-द्वेष रूप परिणत होता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर संलग्न दृष्टि से देखे जाने पर वे राग-द्वेष कुछ भी नहीं है। इसलिये प्रकट होते हुए उन रागद्वेषों को सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्वदृष्टि से-वस्तु के परमार्थ स्वरूप का विचार कराने वाली बुद्धि से नष्ट करे, जिससे कि पूर्ण और अविनाशी किरणों से युक्त स्वाभाविक ज्ञान ज्योति प्रकाशमान हो।
भावार्थ- राग-द्वेष आत्मा की ही अशुद्ध परिणति है। उसकी उत्पत्ति में आत्मा का अज्ञानभाव कारण है। जब आत्मतत्त्व के शुद्ध स्वरूप पर दृष्टि डालते हैं तब उसमें राग-द्वेष की सत्ता दिखाई नहीं देती अर्थात् परमार्थ से आत्मा रागद्वेष से रहित है। इसलिये वर्तमान में जो राग-द्वेष प्रकट हो रहे हैं उन्हें सम्यग्दृष्टि जीव निज में पर के निमित्त जायमान विकारीभाव समझकर नष्ट करने का पुरुषार्थ
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