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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३६१ पृथिवी चाँदनी की नहीं हो जाती, उसी प्रकार जानने मात्र से ज्ञेय ज्ञान के नहीं हो जाते ।।२१५॥ अब ज्ञान में राग-द्वेष का उदय कहाँ तक रहता है, यह दिखाने के लिये कलशा कहते हैं मन्दाक्रान्ताछन्द रागद्वेषद्वयमुदयते तावदेतन यावज् ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बाध्यतां याति बोध्यम्। ज्ञानं ज्ञानं भवतु तदिदं न्यक्कृताज्ञानभावं भावाभावौ भवति तिरयन्येन पूर्णस्वभावः ।।२१६।। अर्थ- राग और द्वेष ये दोनों तब तक उदित होते रहते हैं जब तक कि यह ज्ञान ज्ञान नहीं हो जाता और ज्ञेय ज्ञेयपन को नहीं प्राप्त हो जाता। इसलिये आचार्य आकाङ्क्षा प्रकट करते हैं कि अज्ञानभाव को दूर करनेवाला यह ज्ञान ही रहे, जिससे कि भाव और अभाव को अर्थात् चतुर्गति सम्बन्धी उत्पाद-व्यय को दूर करता हुआ आत्मा पूर्ण स्वभाव से युक्त हो जावे। भावार्थ- ज्ञान ज्ञेयरूप होता है और ज्ञेय ज्ञानरूप होता है, इस प्रकार का संमिश्रण मिथ्यात्व दशा में ही होता है और जब तक यह मिथ्यात्वदशा रहती है तब तक रागद्वेष नियम से उत्पन्न होते रहते हैं। मिथ्यात्व के कारण यह जीव परपदार्थ को सुख-दुःख का कारण मानता है, इसलिये उनकी दृष्टानिष्ट परिणति में रागद्वेष का होना सुलभ है। अत: आचार्य आकाङ्क्षा प्रकट करते हैं कि ज्ञान ज्ञान ही रहे तथा वह 'ज्ञान ज्ञेयरूप होता हैं और ज्ञेय ज्ञानरूप होता है' इस अज्ञानभाव को नष्ट कर दे। जब तक एतादृश ज्ञान प्रकट नहीं होता तब तक आत्मा पूर्ण स्वभाव प्राप्त नहीं होता और जब तक पूर्ण स्वभाव को प्राप्त नहीं होता तब तक इसका चतर्गति सम्बन्धी उत्पाद-व्यय-जन्म-मरण नष्ट नहीं होता। अतएव आत्मा का पूर्ण स्वभाव प्राप्त करने के लिये ज्ञान का ज्ञानरूप होना आचार्य को अभीष्ट है।।२१६।। आगे राग-द्वेष-मोह जीव से अभिन्न परिणाम हैं, यह कहते हैंदसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेयणे विसये। तह्या किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसयेसु।।३६६।। दसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेयणे कम्मे। तह्मा किं घादयदे चेदयिदा तरि कम्मम्मि ॥३६७।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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