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________________ ३६० समयसार यह अनुभव होता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में कभी प्रवेश नहीं करता है। ‘ज्ञान ज्ञेय को जानता है', ऐसा जो व्यवहार होता है वहाँ ज्ञान के भीतर ज्ञेय का प्रवेश नहीं है और ज्ञेय के भीतर ज्ञान का प्रवेश नहीं है। ज्ञान और ज्ञेय यथास्थान अपनेअपने स्वभाव रूप परिणम रहे हैं फिर भी ज्ञान की स्वच्छता के कारण ऐसा प्रतिभास होता है कि ज्ञान में ज्ञेय आ रहा है। जब यह वस्तुस्थिति है तब संसार के ये प्राणी अन्य द्रव्य की प्राप्ति के लिये व्यग्र होते हुए तत्त्व से विचलित क्यों होते हैं? उनकी इस अज्ञानमूलक प्रवृत्ति पर आचार्य आश्चर्य प्रकट करते हैं ।।२१४।। मन्दाक्रान्ताछन्द शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात् किं स्वभावस्य शेष मन्यद्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः। ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमि निं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव ।।२१५।। अर्थ- शुद्ध द्रव्य जो चेतन है उसका स्वभाव रूप परिणमन होता है। उससे अतिरिक्त स्वभाव का शेष क्या रह जाता है अर्थात् कुछ नहीं। यदि यह कहा जाये कि ज्ञेयरूप अन्य द्रव्य चेतन में प्रतिफलित होते हैं तो क्या इससे वे उसके स्वभाव हो गये? चाँदनी का धवल रूप पृथिवी को नहला देता है तो क्या इससे पृथिवी चाँदनी हो जाती है? अर्थात् नहीं। इसी तरह ज्ञान ज्ञेयको जानता है परन्तु ज्ञेय कभी ज्ञान का नहीं होता। भावार्थ- यहाँ शद्ध द्रव्य से प्रयोजन आत्मद्रव्य से है। उसका स्वरस अर्थात निज स्वभाव चैतन्य है। वह आत्मद्रव्य सदा निज स्वभाव रूप परिणमन कर रहा है। इस परिणमन से शेष क्या बच रहता है जो उस स्वभाव कहा जावे? यदि अन्य द्रव्य आत्मा में होते भी हैं अर्थात् ज्ञान की स्वच्छता के कारण उसमें प्रतिफलित होते भी हैं तो इससे वे अन्य द्रव्य आत्मा के स्वभाव नहीं हो सकते। जिस प्रकार चाँदनी पृथिवी को सफेद कर देती है तो क्या इससे पृथिवी चाँदनी की हो जाती है? नहीं, इसी प्रकार ज्ञान ज्ञेयको जानता है तो इससे क्या ज्ञेय ज्ञान का हो जाता है? नहीं, सदा ज्ञान ज्ञान ही रहता है और ज्ञेय ज्ञेय ही रहता है। यह प्रकरण निश्चयनय से ज्ञायक और ज्ञेय के सम्बन्ध का है। यहाँ आचार्य ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि निश्चय से ज्ञायक आत्मा स्वयं ही ज्ञायक है, परद्रव्य को जानने के कारण ज्ञायक नहीं है क्योंकि परद्रव्य जो पुद्गलादि द्रव्य हैं वे कभी आत्मद्रव्य रूप नहीं परिणमते। इसमें दृष्टान्त चाँदनी का दिया है। जिस प्रकार प्रकाशित करने मात्र से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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