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. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
३५९ पर्यायों के निश्चय और व्यवहार का प्रकार जानना चाहिये।
भावार्थ-जानना, देखना, श्रद्धान करना और त्याग करना ये सब आत्मा के चैतन्य गुण के परिणाम हैं। निश्चयनय से विचार करने पर आत्मा परद्रव्य का ज्ञायक नहीं है, परद्रव्य का दर्शक नहीं है, परद्रव्य का श्रद्धायक नहीं है और परद्रव्य का अपोहक नहीं है। उसके ये सब भाव आप ही हैं क्योंकि आत्मा का परिणमन आत्माश्रित है और परद्रव्य का परिणमन पराश्रित है। 'सेटिका भित्ति आदि को सफेद करती है' यहाँ विचार करने पर भित्ति का परिणमन भित्ति रूप हो रहा है और सेटिका का परिणमन सेटिका रूप हो रहा है अर्थात् भित्ति भित्तिरूप ही रहती है और सेटिका सेटिका रूप ही रहती है। परन्तु व्यवहारनय से विचार करने पर आत्मा परद्रव्य का ज्ञायक है, परद्रव्य का दर्शक है, परद्रव्य का श्रद्धायक है और परद्रव्य का अपोहक है, क्योंकि परपदार्थ का जो ज्ञेय, दृश्य, श्रद्धेय और अपोह्यरूप परिणाम है वह आत्मा के ज्ञायक, दर्शक, श्रद्धायक और अपोहक भाव के निमित्त से जायमान है और आत्मा में जो ज्ञायक भाव आदि रूप परिणाम है वह परपदार्थ के ज्ञेयभाव आदि रूप परिणाम के निमित्त से उत्पद्यमान है। ‘सेटिका भित्ति को सफेद करती है' यही भित्ति का श्वेतगण रूप परिणाम है वह सेटिका के निमित्त से उत्पन्न हआ है, इसलिये निमित्त-नैमित्तिक भाव की प्रधानता से तथोक्त व्यवहार होता है। इस तरह निश्चय
और व्यवहार की पद्धति को यथार्थ रूप से जानकर वस्तु स्वरूप का श्रद्धान करना चारिये ।।३५६-३६५।। अब यही भाव कलशा में दिखाते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं समुत्पश्यतो
नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जातुचित्। ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः
किं द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवन्ते जनाः ।।२१४।। अर्थ- शुद्ध द्रव्य के निरूपण में जिसने बुद्धि लगाई है तथा जो सम्यक् प्रकार से तत्त्व का अनुभव कर रहा है ऐसे पुरुष के एक द्रव्य में प्राप्त दूसरा कुछ भी द्रव्य कभी भी प्रतिभासित नहीं होता। ज्ञान ज्ञेयको जानता है' यह जो कहा जाता है सो यह ज्ञान के शुद्ध स्वभाव का उदय है। ये लोक अन्य द्रव्य के ग्रहण से आकुलित बुद्धि होते हुए तत्त्व से क्यों चिगते हैं?
भावार्थ- जब शुद्ध निश्चयनय से तत्त्व का यर्थाथ विचार किया जाता है तब
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